NCERT Solutions Class 9 संस्कृत शेमुषी Chapter-5 (सूक्तिमौक्तिकम्)
Class 9 संस्कृत शेमुषी
पाठ-5 (सूक्तिमौक्तिकम्)
अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
पाठ-5 (सूक्तिमौक्तिकम्)
प्रश्न 1.
अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत –
(क) यत्नेन के रक्षेत् वित्तं वतं वा?
उत्तर-
यत्लेन वृतं रक्षेत्।
(ख) अस्माभिः कीदृशं आचरणं न कर्त्तव्यम्? अथवा अस्माभिः किं न समाचरेत्?
उत्तर-
अस्माभिः आत्मनः प्रतिकूल न समाचरेत्।
(ग) जन्तवः केन विधिना तुष्यन्ति?
उत्तर-
जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति।
(घ) पुरुषैः किमर्थ प्रयत्न कर्त्तव्यम्?
उत्तर-
पुरुषैः गुणेषु एव प्रयत्न कर्त्तव्यम्।
(ङ) सज्जनानां मैत्री की दृशी भवति?
उत्तर-
सज्जनानां मैत्री दिनस्य परार्ध इव आरम्भे लवी पश्चात् च गुर्वी भवति।
(च) सरोवराणां हानिः कदा भवति?
उत्तर-
यदा हंसाः तान् परिव्यज्य अन्यत्र गच्छन्ति।
(छ) नद्याः जलं कदा अपेयं भवति?
उत्तर-
समुद्रतासाद्य नद्याः जलं अपेयं भवति।
प्रश्न 2.
‘क’ स्तम्भे विशेषणानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि, तानि यथोचितं योजनत –
प्रश्न 3.
अधोलिखितयोः श्लोकद्वयोः आशयं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत –
(क) आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपराभिन्ना
छायवे मैत्री खलसज्जनानाम्॥
सरलार्थ – दुर्जन और सज्जनों की मित्रता दिन के पूर्वाध ‘तथा परार्ध (दोपहर पूर्व तथा दोवहर पश्चात्) की छाया की भाँति अलग-अलग स्थिति वाली होती है। दुर्जन की मित्रता तो मध्याह्न तक व्याप्त छाया के समान होती है जो आरम्भ में बड़ी (घनी) तथा उत्तरोत्तर क्रम से क्षीण (कम) होती हुई समाप्त हो जाती है। जबकि सज्जन की मित्रता मध्याह्न से पश्चात् की छाया के समान होती है जो आरम्भ में कम (लघ्वी तथा (क्रमश:) उत्तरात्तर बढ़ती जाती है। यही दोनों की मित्रता में भेद है।
(ख) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥
सरलार्थ – इस संसार में मधुर वचन बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं अर्थात् प्राणिमात्र को प्रियवचनों से अनुकूल रखा जाता है। तब तो प्रत्येक को प्रिय वचन ही बोलने चाहिए, क्योंकि बोलने में कोई दरिद्रता (निर्धनता) नहीं आती।
प्रश्न 4.
अधोलिखितपदेभ्यः जिन्नप्रकृतिक पदं चित्वा लिखत –
(क) वक्तव्यम्, कर्तव्यम्, सर्वस्वम्, हन्तव्यम्।
उत्तर-
सर्वस्वम्,
(ख) यलने, वचने, प्रियवाक्यप्रदानने, मरालेन।
उत्तर-
वचने
(ग) श्रूयताम्, अवधार्यताम्. धनवताम्. क्षम्यताम्।
उत्तर-
धनवताम्
(घ) जन्तवः, नः, विभूतयः परितः।
उत्तर-
परितः।
प्रश्न 5.
स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्नवाक्यनिर्माणं कुरुत –
(क) वृत्ताः क्षीणः हतः भवति।
उत्तर-
कस्मात् क्षीणः हतः भवति।
(ख) धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा अवधार्यताम्।
उत्तर-
कम् श्रुत्वा अवधार्यताम्।
(ग) वृक्षाः फलं न खादन्ति।
उत्तर-
के फलं न खादन्ति।
(घ) खलानाम् मैत्री आरम्भगुर्वो भवति।
उत्तर-
केषाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति।
प्रश्न 6.
अधोलिखितानि वाक्यानि लोट्लकारे परिवर्तयत –
यथा- सः पाठं पठति। – सः पाठं पठतु।
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति। ……………….
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। …………….
(ग) त्वं परेषा प्रतिकूलानि न समाचरसि। …………
(घ) ते वृतं यत्लेन संरक्षन्ति। …………
(ङ) अहम् परोपकाराय कार्य करोमि। ……….
उत्तर-
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति। नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्तु।
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति। सः सदैव प्रियवाक्यं वदतु।
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाच
(घ) ते वृतं यत्नेन संरक्षन्ति। ते वृतं यत्नेन संरक्षन्तु
(ङ) अहम् परोपकाराय कार्य करोमि। अहंपरोपकाराय कार्य कराणि।
प्रश्न 7.
उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकेषु बत्तेषु शब्बेषु उचितां विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत –
यथा- तेषां मरालः विप्रयोगः भवति।
(क)……….सह छात्रः शोधकार्य करोति। (अध्यापक)
(ख) ………. सह पुत्रः आपणं गतवान्। (पितृ)
(ग) कि त्वम् ……. सह मन्दिरं गच्छसि? (मुनि)
(घ) बाल: ………… सह खेलितुं गच्छति। (मित्रम्)
उत्तर-
(क) अध्यापकेन सह छात्रः शोधकार्य करोति।
(ख) पित्रा सह पुत्रः आपणं गतवान्।।
(ग) कि त्वम् मुनिना सह मन्दिर गच्छसि? (
घ) बालः मित्रैः सह खेलितुं गच्छति।
व्याकरणात्मकः बोध:
1. पदपरिचय: – (क)
- आत्मन: – आत्मन् शब्द, षष्ठी विभक्ति, एकवचन। अपने (स्वयं) से।
- परेषाम् – पर सर्व.शब्द, षष्ठी विभक्ति, बहुवचन। दूसरों
- तस्माद् – तत् पु,शब्द, पंचमी विभक्ति, एकवचन। कारणाद् क विशेषण के रूप में प्रयुक्त। उस कारण से।
- अम्भ: – भस् शब्द, द्वितीया विभक्ति, बहुवचन। जल को।
- सस्यम् – सस्य शब्द, द्वितीया विभक्ति, एकवचन। फसल (पौधों) को।
- ईश्वरैः – ईश्वर शब्द, तृतीया विभक्ति बहुवचन। स्वामियों (धनियों) के।
- वृतम् – वृत शब्द, द्वितीया विभक्ति एकवचन। चरित्र, आचरण को।
पदपरिचय: – (ख)
- संरक्षेन् – सम् + रक्षु धातु, विधिलिङ्, एकवचन। सब प्रकार से रक्षा करे।
- एति – आ + इण् धातु, लट्लकार, प्रथमपुरुष एकवचन। आता है।
- श्रूयताम् – श्रू धातु (कर्म), लोट्लकार, प्र.पु. एकवचन। (आप) सुनिये)
- अवधार्यताम् – अब + धृ + लोट् (कर्म) प्र यु एकवचन। (धारण कीजिए)
2. प्रकृतिप्रत्यय विभाग:-
- वक्तव्यम् – वच् + तव्यत् (विध्यर्थं में तव्यत् प्रत्यय)
- कर्तव्यः – कृ + तव्यत्
- गर्वी – गुरु + डीप् (स्त्यर्थ में ङीप् प्रत्यय)
- वृद्धिमती – वृद्धि + मतुप् + डीप्
- भिन्न – भिद् + क्तः + टाप् (पृथक्)
- आस्वाद्य – आ + स्वद् + प्यत् (आस्वादन के योग्य)
- वित्ततः – वित्त + तसिल् (त:) वित्त से (होन) अर्थ में)
- वृततः – वृत + तसिन् (त:) (सच्चरित्र से हीन अर्थ में)
3. परियोजनाकार्यम् –
(क) परोपकारविषयकं श्लोकद्वयं लिखत –
(i) अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्।
(ii) परोपकाराय वहन्ति नद्यः परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः।
परोपकाराय काशते सूर्यः परोपकारार्थमिद्र शरीरम्।।
(ख) नद्या एक सुन्दर चित्र निर्माय वर्णयत सत् तस्याः तीरे मनुष्याः पशवः खगाश्च निर्विघ्नं जलं पिबन्ति –
- एतद् नद्याः चित्रं वर्तते।
- नद्याः तटे अनेके पशवः चरन्ति।
- केचन पशवः नद्या जले पियन्ति।
- नद्यां अनेकेखगा अपि जलं पिबन्ति।
- नद्या निर्मल शीतक च जलं अस्ति।
- नद्याः तटे विविधाः वृक्षाः अपि शोभन्ते।
वृत्तं यत्नेन संग्क्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीप्पो वित्ताः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।
-मनुस्मृतिः
अन्वयः – वृतं यत्नेन संरक्षेद् वित्तं च एति च याति। वित्ततः (क्षीण:) तु अक्षीणः (किंतु), वृततः क्षीणः हतः हतः।
सन्दर्भ: – प्रस्तुत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक “शेमुषी’ (प्रथमोभागः) के “सूक्तिमौक्तिकम्” नामक पाठ से संकमित किया गया है। इस श्लोक का मूलग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ नामक स्मृतिग्रन्थ है जिसमें मनुष्य को सदाचार की शिक्षा देते हुए मनु कहते हैं।
सरलार्थ – मनुष्य को सदाचार (सच्चरित्र) की दृढ़ता पूर्वक रक्षा करनी चाहिए अर्थात् सदैव सदाचार की रक्षा में प्रयत्मशील रहना चाहिए। धन तो अस्थिर होता है। अर्थात् आता-जाता रहता है। धन के क्षीण (कम) होने से मनुष्य क्षीण नहीं होता अर्थात् निर्धन नहीं होता अपितु सदाचार से क्षीण (हीन होने पर निश्चय ही उसका विनाश हो जाता है।
भाव – मनुष्य को सदाचारी होना चाहिए। सच्चा धन नहीं, किंतु सदाचार सच्चरित्रता रूपी धन ही होता है। जैसा कि अन्यत्र भी कहा गया है-आचारः प्रथमो धर्मः।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
-विदुरनीतिः
अन्वयः – धर्मसर्वस्वं श्रूयताम् च श्रुत्वा एव अवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेतृ।।
सन्दर्भ: – हमारी पाठ्य-पुस्तक “शेमुषी” (प्रथमोभागः) के “सूक्तिमौक्तिकम्” नामक पाठ में सकलित यह श्लोक महाम्मा विदुर रचित ‘किदुरनीति:’ नामक नीति ग्रन्थ से लिया गया है जिसमें विदुर ने मानवधर्म तथा व्यवहार की शिक्षा देते हुए कहा है
सरलार्थ – मानव को धर्म का सार सुनना चाहिए और उसे सुनकर मन में धारण (ग्रहण) करना चाहिए तथा स्वयं के प्रतिकूल (अप्रिय) आचरण दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिए। अर्थात् जो व्यवहार तथा कार्य हमें स्वयं को प्रिय नहीं लगता, वह व्यवहार हमें दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए।
भाव – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में अपने परिवार बन्धु, मित्रों, पड़ोसियों के साथ सामञ्जस्य बैठाकर जीना होता है। इसके लिए आवश्यक है-वह धर्म पर तत्वपरक शिक्षाओं को सुनकर ग्रहण करे उन्हें अपने आचरण में शमिल करे तथा दूसरों के साथ अनुकूल आचरण करे।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माक तदेव वक्यव्यं वचने का दरिद्रता।
-चाणक्यनीतिः
अन्वयः – सर्वे जन्तवः प्रियवाक्य प्रदानेत तुष्यन्ति। तस्मात् (सर्वैः) तदेव वक्तव्यम् वचने का दरिद्रता।।
सन्दर्भ – हमारी पाठ्य-पुस्तक “शेमुषी” (प्रथमोभागः) के “सूक्मिौक्तिकम्” नामक पाठ में संग्रहीत प्रस्तुत श्लोक “चाणक्यनीति” नामक मूल प्रस्तक से चयनित किया गया है। इसमें मधुरभाषिता वाणी के महत्व को प्रकट करते हुए कौटिल्य चाणक्य कहते हैं
सरलार्थ – इस संसार में मधुर वचन बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं अर्थात् प्राणिमात्र को प्रिय वचनों से अनुकूल रखा जाता है। तब तो प्रत्येक को प्रिय वचन ही बोलने चाहिए, क्योंकि बोलने में कोई दरिद्रता (निर्धनता) नहीं आती।
भाव – प्रिय वचनों में असीम शक्ति होती है। ये सभी को अनुकूल बना लेते हैं। मधुरोक्तियाँ सभी को खुश रखती है। जबकि कटूवचनों से विरोधी जन्मते हैं, अतः सर्वदा सरस, मधुर वाणी बोली जानी चाहिए। कोयल मधुरवाणी (कूक) के कारण सबकी प्रिय है।
पिबन्ति नद्यः स्वयमेवनाम्भः
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः
परोपकाराय सतां विभूतयः॥
-सुभाषितरत्नभाण्डागारम्
अन्वय: – नद्यः स्वयमेव अम्भः न पिबन्ति, वृक्षाः फलानि स्वयं न खादन्ति।
वारिवाहाः सस्यं खलु न अदन्ति (एवं) सतां विभूतयः परोपकाराय (भवन्ति, न तु आडम्बराय)।
सन्दर्भ – “शेमुषी” (प्रथमोभागः) में चयनित प्रकृत श्लोक ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्” नामक मूलग्रन्थ से अवतरित है। इसमें “परोनकार” रूपी महान् गुण, पुण्यकार्य की महिमा का वर्णन किया जा रहा है।
सरलार्थ – नदियाँ अपना जल स्वयं ही नहीं पीती। वृक्ष (वनस्पतिया) अपने फल स्वयं नहीं खाते। बादल सस्यों (कृषि कर्म द्वारा उगाई फसलों) को कभी नहीं खाते अर्थात् यह सब इनके परोपकारात्मक स्वभाव के कारण है। इसी प्रकार सज्जनों (श्रेष्ठ लोगों) की सम्पत्तियाँ (साधन) भी परोपकार के लिए ही होता है, स्वार्थ के लिए नहीं।
भाव – यह समस्त संसार परोपकार पर ही टिका हुआ है। सम्पूर्ण प्रकृति प्राणिमात्र के हितसाधन, कल्याण हेतु उद्यत है, जैसे-नदियां, वनस्पति, बादल सूर्य, चन्द्रमा तथा भूमि इत्यादि।
एवमेव महान् लोगों की सम्पत्ति, साधन तथा सर्वस्व ही जनहित के लिए होता है। जैसे महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियाँपरहित हेतु दान कर दी। “रामचरितमानस” में भी तुलसीदास जी ने कहा है
“परहितसरिस धर्म नहीं भाई”। इसी प्रकार व्यास जी ने भी पुराणों के सारस्वरूप निन्नलिखित वचन कहे हैं-” परोपकार: पुण्याय”।
गुणेष्वेव हि कतव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः।।
-मृच्छकटिकम्
अन्वयः – पुरुष सदा हि गुणेषु एव प्रयत्नः। कर्त्तव्यः। (यतः) गुणयुक्तः, दरिद्रः अपि, अगुण (युक्तैः) ईश्वरैः समः न। (अपितु श्रेष्ठः भवति)।
सन्दर्भ – महाकवि शूद्रक द्वारा रचित “मृच्छकटिकम्” नामक नाट्यग्रन्थ से संग्रहीत तथा “शेमुषी” के प्रथम भाग के “सूक्तिमौक्तिकम्” नामक पाठ में चयनित प्रस्तुत में “गुणग्राह्यता” में प्रयासरत रहने की आवश्यकता बताई जा रही है।
सरलार्थ – मनुष्य को सदा गुणों को ग्रहण (धारण) करने में ही प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि संसार में गुणों से युक्त निर्धन व्यक्ति भी गुणों से होन-धनी व्यक्तियों से बढ़कर (श्रेष्ठ) होता है अर्थात् गुणहीन निर्धन व्यक्ति ही उससे श्रेष्ठ होता है।
भाव – धन नश्वर है, जबकि गुण जीवन पर्यन्त मनुष्य की निधि बनकर उसके साथ रहते हैं। धन, शरीर द्वारा अर्जित शरीर केलिए ही केवल कुछ सुविधाएं, साधन उपस्थित करता है, जबकि ‘गुण’ आत्मा के धर्म स्वरूप हैं। गुणों के उत्कर्ष से ही मनुष्य सच्चा मनुष्य बनता है। “आत्मोदय” के साधन गुण ही हैं, धन नहीं। अतः मनुष्य को गुणग्राह्यता के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। धन के पीछे नहीं भटकना चाहिए।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
-नीतिशतकम्
अन्वयः – दिनस्य पूर्वार्द्ध भिन्न छाया इव खल्सज्जनानां मैत्री-आरम्भगुर्वी (पश्चात् च) क्रमेणक्षयिणी, (तथा च) पुरा पश्चात् च वृद्धिमती (भवति)।
सन्दर्भ – महाकवि भर्तृहरिरचित ‘नीतिशतकम्’ नामक पुस्तक से संग्रहीत तथा “शेमुषी’ के ‘सूक्तिमौक्तिकम्’ नामक पाठ में सम्मिलित प्रस्तुत श्लोक में दुर्जन तथा सज्जन की मैत्री के विषय में प्रकृतिपरक उदाहरण के द्वारा भेद दिखाया जा रहा है।
सरलार्थ – दुर्जन और सज्जनों की मित्रता दिन के पूर्वाध , ‘ तथा परार्ध (दोपहर पूर्व तथा दोपहर पश्चात्) को छाया की भाँति अलग-अलग स्थिति वाली होती है। दुर्जन की मित्रता तो मध्याह्न तक व्याप्त छाया के समान होती है जो आरम्भ में बड़ी (धनी) तथा उत्तरोत्तर क्रम से क्षीण (कम) होती हुई समाप्त हो जाती है। जबकि सन्जन की मित्रता मध्याह्न से पश्चात् की छाया के समान होती है जो आरम्भ में कम (लध्वी तथा (क्रमश:) उत्तरात्तर बढ़ती जाती है। यही दोनों की मित्रता में भेद है।
भाव – दुर्जन की मित्रता स्वार्थाधारित जबकि सज्जन को मित्रता स्वार्थरहित होती है। जब तक स्वार्थ सिद्धि नहीं हो जाती, दुर्जन की मैत्री प्रगाझ रूप में दिखाई देती है। स्वार्थ सिद्धि के उपरान्त वह समाप्त हो जाती है। अत: वह मित्रता नहीं केवल मित्रता का स्वार्थवश प्रदर्शन होता हैं। जबकि सजन की मैत्री चिरस्थायी होती है, क्योंकि उसमें स्वार्थता (स्वाहितसाधनेच्छा) नहीं होती। जैसे कि कहा भी गया है
नारिकेल समाकाराः दृश्यन्ते सुहृजनाः।
अन्ये तु बदरिकाकाराः बहिरेव मनोहराः॥
अर्थात् सच्चे मित्र नारियल के समान बाहर से कठोर जबकि अन्दर से मृदु होते हैं तथा स्वार्थी मित्र ‘बेर’ के समान केवल बाहर-बाहर से ही मनोहरी होते हैं।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु –
हंसा महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
येषां मरालैः सह विप्रयोगः।।
-भामिनीविलासः
अन्वयः – हंसा: महीमण्डलमण्डनाय यत्र अपि कुत्र अपि गताः भवेयुः (तथा भूते) हानि: तु तेषां सरोवराणां हि (भवति) येषां मरालैः सह (तेषां) विप्रयोगः (भवति)।
सन्दर्भ – पण्डितराज जगन्नाथ रचित “भामिनीविलासः” नाम ग्रन्थ से समाहृत प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक “शेमुषी’ (प्रथमोभागः) में “सूक्तिमौक्तिकम्” नामक पाठ में समाहित है। इसमें गुणी (उत्तम) पुरुषों के महत्व को प्रतिपादित किया गय है।
सरलार्थ – हंस, पृथ्वी की शोभा बढ़ाने को जहाँ कहीं भी चले गए हों, इसमें हानि तो उन सरोवरों (तालाबों) की ही होती है जिन्हें छोड़कर हंस चले गए अर्थात् शोभाकारक हंसो से जिनका बिछुराव हो गया।
भाव – जैसे हंस के वहां रहने से सरोवर की शोभा द्विगुणित हो जाती है और चले जाने से शून्यता आ जाती है, वैसे ही श्रेष्ठ (उत्तम) लोगों के तद्वासित स्थान, नगरी को छोड़ने में उनकी नहीं अपितु उस स्थान की शोभा थी। वहां शान्ति, धर्म, परोपकार, दयालुता, स्नेह आदि गुणकर्मो व्यवहार होता था जो उनके वहां से चले जाने पर नहीं रहेगा।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुण प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रतासाद्य भवन्यपेयाः।।
-हितोपदेशः
अन्वयः – गुण: गुणज्ञेषु (एव) गुणः भवन्ति, ते (गुणा:) निर्गुणं प्राप्य दोषाः भवन्ति। (यथा) नद्यः आस्वाद्यतोयाः (सति) प्रवहन्ति (किंतु) (ताः एव) समुद्रं आसाद्य अपेयाः भवन्ति।
सन्दर्भ – नाराया पण्डित द्वारा रचित लोकप्रिय ग्रन्थ “हितोपदेश’ से समाहत प्रकृत श्लोक हमारी संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक “शेमुषी” प्रथमोभागः के “सूक्तिमौक्तिकम्” नामक पाठ में संग्रहीत है। यहां ‘गुण व गुणज्ञ’ के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला जा रहा है।
सरलार्थ – गुण, तभी तक गुणरूप में रहते हैं जब तक वे गुणज्ञ (गुणग्राही) जनों में होते हैं। वही गुण निर्गुण पात्र में पहुँचकर दोषो का रूप ग्रहण कर लेते हैं। अर्थात् मूखों में आकर वे ही गुण दोष बन जाते हैं। जैसे नदियों का स्वादिष्ट (पेय) जल समुद्र में पहुँचकर अपेय अर्थात् न पीने योग्य (खारी) बन जाता है। सारा भेद संसर्ग का है।
भाव – तुच्छ जन भी महान् लोगों की संगति में आकर जीवन को धन्य कर लेते है। संसार में आदिकाल से लेकर आज तक अनेकों ऐसे उद्धरण भरे हैं जिनमें प्रारम्भमें दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को महान् पुरुषों की संगति में आने के बाद श्रेष्ठ जीवन धारण करते हुए तत्सम्बन्धित क्षेत्रों में अत्यधिक उत्कर्ष को प्राप्त किया तथा चतुर्दिक यश प्राप्त किया। अत: संगति का प्रभाव अनिवार्य तथा अक्षुण्ण रूप से मनुष्य पर होता है। जैसे प्रस्तुत उदाहरण में ‘जल’ तो एक ही है, परन्तु नदियों के अन्दर मधुर तथा समुद्र में पहुँच वही जल खारी हो जाता है। अत: सज्जन भी कुसंगति में पड़कर दुर्बन तथा दुर्जन सत्संगति में आकर सन्जन बन जाता है। जैसे-महर्षि वाल्मीकि। महात्मा गांधी ने कहा भी है
सत्सङ्गतिरतो भविष्यसि, भविष्यसि।
दुर्जनससर्गे पतिष्यसि, पतिष्यसि ।।