NCERT Solutions Class 9 संस्कृत शेमुषी Chapter-12 (वाडमनःप्राणस्वरूपम्)
Class 9 संस्कृत शेमुषी
पाठ-12 (वाडमनःप्राणस्वरूपम्)
अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
पाठ-12 (वाडमनःप्राणस्वरूपम्)
अभ्यासः
प्रश्न 1.
अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत –
(क) श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणिं कस्य स्वरूपस्य विषये पृच्छति?
उत्तर-
श्वेतकेतु सर्वप्रथमं आरुणिं मनसः स्वरूपस्य विषये पृच्छति।
(ख) आरुणिः प्राणस्वरूपं कथं निरूपयति?
उत्तर-
आरुणिः निरूपयतियत् “आपोमयो भवति प्राणाः।”
(ग) मानवानां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?
उत्तर-
मानवानां चेतांसि अशितान्नामुरूपाणि भवन्ति।
(घ) सर्पिः किं भवति?
उत्तर-
मथ्यमानस्य दनः योऽणुतमः यदुवं आयाति तत् सर्पिः भवति।।
(ङ) आरुणे: मतानसारं मनः कीदशं भवति?
उत्तर-
आरुणे: मतानुसारं मनः अन्नमय भवति।
प्रश्न 2.
(क) ‘अ’ स्तम्भस्य पदानि ‘ब’ स्तम्भेन दत्तैः पदैः सह यथायोग्यं योजयत –
प्रश्न 2.
(ख) अधोलिखितानां पदानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत –
- गरिष्ठः – ……………..
- अधः – ……………..
- एकवारम् – ……………..
- अनवधीतम् – ……………..
- किञ्चित् – ……………..
उत्तर-
- गरिष्ठः – अणिष्ठः
- अधः – ऊर्ध्वः
- एकवारम् – भूयोऽपि
- अनवधीतम् – अधीतम्
- किञ्चित् – भूयः
प्रश्न 3.
उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखितेषु क्रियापदेषु ‘तुमुन’ प्रत्ययं योजयित्वा पदनिर्माणं कुरुत –
यथा – प्रच्छ् + तुमुन् – प्रष्टुम्
(क) श्रु + तुमुन् – ……………..
(ख) वन्द् + तुमुन् – ……………..
(ग) पठ् + तुमुन् – ……………..
(घ) कृ + तुमुन् – ……………..
(ङ) वि + ज्ञा . तुमुन् – ……………..
(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् – ……………..
उत्तर-
(क) श्रु + तुमुन् – श्रोतुम्
(ख) वन्द् + तुमुन् – वन्दितुम्
(ग) पठ् + तुमुन् – पठितुम्
(घ) कृ+तुमुन् – कर्तुम्
(ङ) वि + ज्ञा + तुमुन् – विज्ञातुम्
(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् – व्याख्यातुम्
प्रश्न 4.
निर्देशानुसार रिक्तस्थानानि पूरयत –
(क) अहं किञ्चित् प्रष्टुम् …………..। (इच्छ-लट्लकारे)
(ख) मनः अन्नमयं …………..। (भू-लट्लकारे)
(ग) सावधानं ………….। (श्रु-लट्लकारे)
(घ) तेजस्विनावधीतम् ………..। (असू-लट्लकारे)
(ङ) श्वेतकेतुः आरुणेः शिष्यः ………………..। अस्-लङ्लकारे)
उत्तर-
(क) अह किञ्चित् प्रष्टुम् इच्छामि।
(ख) मनः अन्नमयं भवति।
(ग) सावधानं शृणु।
(घ) तेजस्विनावधीतम् अस्तु।
(ङ) श्वेतकेतुः आरुणे: शिष्यः आसीत्।
प्रश्न 5.
उदाहरणनुसृत्य वाक्यानि रचयत –
यथा – अहं स्वदेशं सेवितुम् इच्छामि।
(क) …………….. उपदिशामि।
(ख) ……………. प्रणमामि।
(ग) ……………… आज्ञापयामि।
(घ) ………………… पृच्छामि।
(ङ) ……………. अवगच्छामि।
उत्तर-
(क) अहं शिष्यं उपदिशामि।
(ख) अहं गुरुं प्रणमामि।
(ग) अहं सेवकं आज्ञापयामि।
(घ) अहं गुरुं पृच्छामि।
(ङ) अहं मनसः स्वरूपं अवगच्छामि।
प्रश्न 6.
(क) सन्धिं कुरुत –
- अशितस्य + अन्नस्य ………………
- इति + अपि + अवधार्यम् ……………..
- का + इयम् ……………..
- नौ + अधीतम् ……………..
- भवति + इति ……………..
उत्तर-
- अशितस्य + अन्नस्य – अशितान्नस्य
- इति + अपि + अवधार्यम् – इत्यप्यवधार्यम्
- का + इयम् – केयम्
- नौ + अधीतम् – नावधीतम्
- भवति + इति – भवतीति
प्रश्न 6.
(ख) स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत –
(i) मथ्यमानस्य दध्यः अणिमा ऊर्ध्वं समुदीषति।
उत्तर-
कीदृशः दधनः अणिमा ऊर्ध्व समुदीषति?
(ii) भवता घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्।
उत्तर-
घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्?
(iii) आरुणिम् उपगम्य श्वेतकेतुः अभिवादयति।
उत्तर-
आरुणिं उपगम्य कः अभिवादयति?
(iv) श्वेतकेतुः वाग्विषये पृच्छति।
उत्तर-
श्वेतकेतुः कस्य विषये पृच्छति?
प्रश्न 7.
पाठस्य सारांशं पञ्चवाक्यैः लिखत –
- पाठे आरुणिः श्वेतकेतु विज्ञापयति। यत्
- अन्नमयं भवति मनः
- आपोमयो भवति प्राणाः।
- तेजोमयी भवति वाक्।
- मनुष्यः या दृशमन्नादिक खादति तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवति।
व्याकरणात्मक: बोधः
1. पदपरिचयः – (क)
- भगवन् – भगवन् शब्द, सम्बोधन, एकवचन। हे भगवान। (गुरु, पिता)
- मन: – मनस् शब्द, प्रथमा विभक्ति, एकवचन। मन।
- अपाम् – अप् शब्द, षष्ठी विभक्ति, बहुवचन। जल का। यह शब्द नित्य बहुवचनान्त प्रयुक्त होता है।
- तेजस: – तेजस् शब्द, षष्ठी विभक्ति, एकवचन। अग्नि का।
- नौ – आवयोः की जगह प्रयुक्त। हम दोनों का।
पदपरिचयः – (ख)
- समुदीषति – सम् + उद् + इ + लट्लकार, प्र.पु. , एकवचन। ऊपर आ जाता है, उठ जाता है।
- इच्छमि – इष् धातु, लट्लकार, प्र.पु., एकवचन। चाहता हूँ।
- शृणु – श्रू धातु, लट्लकार, मध्यम प्र.पु., एकवचन। सुनो।
- विज्ञापयतु – वि + ज्ञा + लट्लकार, प्र.पु., एकवचन। (आप) शिक्षा दें।
2. प्रकृतिप्रत्ययविभाग:
- अन्नमयम् – अन्न + मयट्
- आपोमयः – आप: + मयट्
- तेजोमयी – तेजः + मयी
- मयट् प्रत्यय (तद्धित) विकार (अवयव) अर्थ में प्रकृति (शब्द) के पीछे जुड़ता है। ‘अन्नमयम्’ का अर्थ अन्न (प्रकृति) का विकार (एक अवयव) – मन। एकमन्यत्र ज्ञेयम्।
- प्रष्ट्रम् – प्रच्छ + तुमुन् (पूछने के लिए) प्रष्टव्यम्-प्रच्छ + तव्यम् (पूछने के योग्य)
- अशितस्य – अश् + क्तः षष्ठी विभक्ति. एकवचन। (मधे जाते हुए का)
- अवधार्यम् – अव + धृ + व्यत् (धारण करने योग्य)
परिशिष्ट
- अणिष्ठः – अणु + इष्ठ (सबसे छोटा)
इसका विपरीतार्थक शब्द - गरिष्ठः – गुरु + इष्ठ (सबसे बड़ा, भारी)
इस प्रकार, - उरु + इष्ठ = वरिष्ठ (सबसे ऊपर) बड़ा.
- युवन् + इष्ठ – कनिष्ठ (सबसे छोटा)
- प्रशस्य + इष्ठ – ज्येष्ठ (सबसे बड़ा)
- बल + इष्ठ = बलिष्ठ (सबसे बलवान्)
- प्रिय + इष्ठ – प्रेष्ठ (सबसे प्रिय)
- प्रशस्य + इष्ठ = श्रेष्ठ (सबसे उत्तर)
- अणिमा = अणु + इमनिन्। (अणु (सूक्ष्मता) का भाव)
इसी प्रकार - गुरु + इमनिच् = गरिमा (बड़प्पन का भाव)
- लघु + इमनिच् = लघिमा (छोटेपन का भाव)
सन्दर्भ – प्रस्तुत पाठ हमारी पाठ्य – पुस्तक (संस्कृत) ‘शेमुषी’ प्रथमोभागः में संकलित है। यह पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय से संग्रहीत है। इसमें मन, प्राण तथा वाक् के स्वरूप का वर्णन बड़े रोचक संवाद के द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
श्वेतकेतुः – भगबन्। श्वेतकेतुरहं बन्दे।
श्वेतकेतु – हे पूज्या मैं श्वेतकेतु आपको प्रणाम करता हूँ।
आरुणिः – वत्स! चिरञ्जीव।
आरुणि – पुत्र, चिरकाल तक जीओ।
श्वेतकेतुः – भगवन्! किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि।
श्वेतकेतु – पूज्य! (आपसे) कुछ पूछना चाहता हूँ।
आरुणि: – वत्स! किमद्य त्वया प्रष्टव्यमस्ति?
आरुणि – पुत्र! आज तुम्हें क्या पूछना है?
श्वेतकेतुः – भगवन्! प्रष्टुमिच्छामि किमिदं मनः?
श्वेतकेतु – हे पूज्य! मैं यह पूछना चाहता हूँ कि यह मन क्या है?
आरुणिः – वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
आरुणि – पुत्र! खाए हुए अन्न का जो सबसे सूक्ष्म (लघुत्तम) भाग है, वही मन है। अर्थात् अन्न ही सार रूप में ‘मन’ में परिणत होता है।
श्वेतकेतु: – कश्च प्राणः? श्वेतकेतु – और प्राण कौन (क्या) है?
आरुणि: – वत्स! अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक्। सौम्य! मनः अन्नमयं, प्राणः आपोमयः वाक् च तेजोमयी भवति इत्यप्यवधार्यम्।
आरुणि। पुत्र! खाए हुए अन्न से उत्पन्न तेज (ऊर्जा) का जो सबसे सूक्ष्म (छोटा) भाग है, वह वाणी है। अर्थात् ऊर्जा ही सार रूप में वाणी में परिणत होती है। “हे सुशील! यह मन अन्न का विकार होता है, प्राण जल का तथा वाणी तेज (ऊर्जा) का विकार होती है। यह भी समझने योग्य है।”
श्वेतकेतुः – भगवन्! भूय एव मां विज्ञापयतु। श्वेतकेतु – हे पूज्य! मुझे एक बार पुनः समझाएं।
आरुणिः – सौम्य! सावधानण। मथ्यमानस्य दनः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीपति। तत्सर्पिः भवति।
आरुणि – हे सौम्य! सावधान होकर सुनो। मथे जाते हुए दही का लघुत्तम साररूप जो भाग है, वह ऊपर उठ जाता है और वही धृत (घी) होता है।
श्वेतकेतुः – भगवन्! व्याख्यातं भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम्। भूयोऽपि श्रोतुमिच्छामि।
श्वेतकेतु – पूज्य! आपने धृत की उत्पत्ति के रहस्य का वर्णन कर दिया। इसके आगे भी कुछ और सुनना चाहता है।
आरुणिः – एवमेव सौम्य! अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। तन्मनो भवति। अवगतं न वा?
आरुणि – हे सुशील! इसी तरह जो अन्न (प्राणी के द्वारा) खाया जाता है, उसका जो सबसे छोट भाग है, वह ऊपर उठ जाता है और वही मन होता है। समझे या नहीं?
श्वेतकेतुः – सम्यगवगतं भगवन्! श्वेतकेतु – अच्छी प्रकार से समझ गया पूज्य।
आरुणि: – वत्स! पीयमानानाम् अपां योऽणिमा स ऊर्ध्व: समुदीपति स एव प्राणो भवति।
आरुणि – पुत्र! (प्राणियों के द्वारा) जो पानी पोया जाता है, उसका जो सबसे सूक्ष्मतम रूप है जो ऊपर उठता है, वह ही प्राण होता है।
श्वेतकेतु: – भगवन्! वाचमपि विज्ञापयतु। श्वेतकेतु – वे वन्द्य! वाणी के विषय में भी समझाएं।
आरुणिः – सौम्य अश्यमानस्य तेजसो योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। सा खलु वाग्भवति। वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वा विज्ञापयिमतुमिच्छामि यदन्नमयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राणास्तेजोमयी च भवति वागिति। किञ्च यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवस्तादृशमेव तस्य चित्तादिक भवतीति मदुपदेशसारः। वत्स। एतत्सर्व हदयेन अवधारय।
आरुणि – हे सौम्य! (प्राणियों के द्वारा) जो तेजोयुक्त अन्न (धृत, चिकनाई आदि) खाया जाता है, उससे उत्पन्न तेज (ओज) का जो सूक्ष्मतम स्वरूप है तथा जो ऊपर उठता है, निश्चय ही वह वाणी होती है। पुत्र! इस उपदेश के अन्त में मैं एक बार पुनः बार पुन: तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि (खाए गए) अन्न का ही परिणाम (विकार) मन होता है अर्थात् प्राणी जैसा अन्न सात्विक! राजसी! तामसी खाता है, उसका वैसा ही मन बन जाता है। इसी तरह (पीये गए) जल का परिणाम (विकार) ही प्राण होता है अर्थात् प्राण जलमय होता है। अर्थात् जल ही प्राण रूप में परिणत होता है। तथा खाए हुए धृत आदि अन्न से उत्पन्न तेज (शक्ति) का ही परिणाम (विकार) वाणी होता है। अर्थात् तेजोयुक्त पदार्थ (अन्न) खाने से वाणी में ओज का प्रवाह आता है। और अधिक क्या? मनुष्य जैसा भी अन्न आदि खाता है वैसा ही उसका मन आदि हो जाता है, यही मेरे उपदेश (शिक्षा) का सार है। पुत्र! यह सारा (ज्ञान) अपने हृदय में धारण कर लो।
श्वेतकेतुः – यदाज्ञापयाति भवगत् एष प्रणमामि।
श्वेतकेतु – जैसी आप आज्ञा दें पूज्य। यह (मैं) प्रणाम करता हूँ अर्थात् विदा लेता हूँ।
आरुणि – पुत्र! आयुष्मान होओ (जीते रहो) हम दोनों (गुरु – शिष्य) के द्वारा अधीत (गृहीत) ज्ञान तेजोयुक्त हो अर्थात् हमारे द्वारा गृहीत ज्ञान दिव्य हो।