NCERT Solutions Class 10 भारत और समकालीन विश्व - 2 Chapter-4 (औद्योगीकरण का युग)

NCERT Solutions Class 10 भारत और समकालीन विश्व - 2 Chapter-4 (औद्योगीकरण का युग)

NCERT Solutions Class 10 भारत और समकालीन विश्व - 2 10 वीं कक्षा से Chapter-4 (औद्योगीकरण का युग) के उत्तर मिलेंगे। यह अध्याय आपको मूल बातें सीखने में मदद करेगा और आपको इस अध्याय से अपनी परीक्षा में कम से कम एक प्रश्न की उम्मीद करनी चाहिए। 
हमने NCERT बोर्ड की टेक्सटबुक्स हिंदी भारत और समकालीन विश्व - 2 के सभी Questions के जवाब बड़ी ही आसान भाषा में दिए हैं जिनको समझना और याद करना Students के लिए बहुत आसान रहेगा जिस से आप अपनी परीक्षा में अच्छे नंबर से पास हो सके।
Solutions Class 10 भारत और समकालीन विश्व - 2 Chapter-4 (औद्योगीकरण का युग)
एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर

Class 10 भारत और समकालीन विश्व - 2

पाठ-4 (औद्योगीकरण का युग)

अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर

पाठ-4 (औद्योगीकरण का युग)

संक्षेप में लिखें -

1. निम्नलिखित की व्याख्या करें-

(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।

(ग) सूरत बंदरगाह अठारहवीं सदी के अंत तक हाशिये पर पहुँच गया था।

(घ) ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।

उत्तर 

(क) जेम्स हरग्रीव्ज़ द्वारा 1764 में बनाई गई स्पिनिंग जेनी मशीन ने ऊन उद्योग में कताई की प्रक्रिया तेज कर दी और मजदूरों की माँग घटा दी। ब्रिटेन के हथकरघा कारीगरों को लगने लगा कि इस नई मशीन से उनका रोजगार छिन जायेगा। इस मशीन को वे अपने अस्तित्व के लिये खतरा समझने लगे। इसलिए ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किये और तोड़-फोड़ किया।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों शहरी क्षेत्रों में गिल्ड हुआ करते थे जो बहुत प्रभावशाली थे। इनका काम किसी भी क्षेत्र में उत्पादन और कीमत दोनों को नियंत्रित करना था जिस कारण किसी भी नये व्यवसायी के लिए व्यवसाय में शुरुआत करना बहुत मुश्किल होता था। इसलिए सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ रुख़ करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे।

(ग) यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल कीं और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इज़ारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। जिससे सूरत जैसे बंदरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आई। पहले निर्यात वव्यापार के इस नेटवर्क में बहुत सारे व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे| परन्तु जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए|

(घ) ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था क्योंकि-

• ईस्ट इंडिया कम्पनी परंपरागत बिचौलियों और व्यवसायियों को समाप्त करना चाहती थी।

• कंपनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा दे दिया जाता था। जो कर्जा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

2. प्रत्येक के आगे ‘सही’ या ‘गलत’ लिखें:

(क) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की कुल श्रम शक्ति का 80 प्रतिशत तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा था।

उत्तर  गलत

(ख) अठारहवीं सदी तक महीन कपड़े के अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर भारत का दबदबा था।

उत्तर  सही

(ग) अमेरिकी गृहयुद्ध के फलस्वरूप भारत के कपास निर्यात में कमी आई।

उत्तर  गलत

(घ) फ्लाई शटल के आने से हथकरघा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ।

उत्तर  सही

3. पूर्व औद्योगीकरण का मतलब बताएँ।

उत्तर 

इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों पर आधारित नहीं था।

चर्चा करें-

1. उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे?

उत्तर 

• उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी या वेतन के मद में भारी लागत जैसी कोई परेशानी नहीं थी। उन्हें ऐसी मशीनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी जिनके कारण मजदूरों से छुटकारा मिल जाए और जिन पर बहुत ज्यादा' खर्चा आने वाला हो।

• बहुत सारे उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती बढ़ती रहती थी। जैसे गैस घरों और शराबखानों में जाड़ों के दौरान खास काम रहता था। इस दौरान उन्हें ज्यादा मजदूरों की जरूरत होती थी। क्रिसमस के समय बुक बाइंडरों और प्रिंटरों को भी दिसम्बर से पहले अतिरिक्त मजदूरों की दरकार रहती थी। वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मशदूरों को ही काम पर रखना पसंद करते थे।

• बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। लेकिन विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग-कुलीन और पूँजीपति वर्ग- हाथों से बनी चीजों को तरजीह देते थे।

• हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फिनिश अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिजाईन अच्छा होता था।

2. ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया?

उत्तर 

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा दे दिया जाता था। जो कर्जा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

3. कल्पना कीजिए कि आपको ब्रिटेन तथा कपास के इतिहास के बारे में विश्वकोश (Encyclopaedia) के लिए लेख लिखने को कहा गया है। इस अध्याय में दी गई जानकारियों के आधार पर अपना लेख लिखिए।

उत्तर 

ब्रिटेन तथा कपास के इतिहास

सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के दौरान, सौदागर कपड़ा उत्पादन में ग्रामीण लोगों के साथ व्यापार करते थे। इस व्यवस्था से शहरों और गाँवों के बीच एक घनिष्ठ संबंध विकसित हुआ। सौदागर रहते तो शहरों में थे लेकिन उनके लिए काम ज़्यादातर देहात में चलता था। इंग्लैंड के कपड़ा व्यवसायी स्टेप्लर्स (Staplers) से ऊन खरीदते थे और उसे सूत कातने वालों के पास पहुँचा देते थे। इससे जो धागा मिलता था उसे बुनकरों, फुलर्ज़ (Fullers), और रंगसाज़ों के पास ले जाया जाता था। लंदन में कपड़ों की फिनिशिंग होती थी। इसके बाद निर्यातक व्यापारी कपड़े को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेच देते थे। इसीलिए लंदन को तो फ़िनिशिंग सेंटर के रूप में ही जाना जाने लगा था।

कपास (कॉटन) नए युग का पहला प्रतीक थी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई। 1760 में ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए 25 लाख पौंड कच्चे कपास का आयात करता था 1787 में यह आयात बढ़कर 220 लाख पौंड तक पहुँच गया। तेजी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था| यह इज़ाफ़ा उत्पादन की प्रक्रिया में बहुत सारे बदलावों का परिणाम था।

अठारहवीं सदी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया (कार्डिंग, ऐंठना व कताई, और लपेटने) के हर चरण की कुशलता बढ़ा दी। प्रति मज़दूर उत्पादन बढ़ गया और पहले से ज़्यादा मजबूत धागों व रेशों का उत्पादन होने लगा। इसके बाद रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा सामने रखी। अभी तक कपड़ा उत्पादन पूरे देहात में फैला हुआ था। यह काम लोग अपने-अपने घर पर ही करते थे। लेकिन अब मँहगी नयी मशीनें खरीदकर उन्हें कारखानों में लगाया जा सकता था। कारखाने में सारी प्रक्रियाएँ एक छत के नीचे और एक मालिक के हाथों में आ गई थीं। इसके चलते उत्पादन प्रक्रिया पर निगरानी, गुणवत्ता का ध्यान रखना और मज़दूरों पर नज़र रखना संभव हो गया था। जब तक उत्पादन गाँवों में हो रहा था तब तक ये सारे काम संभव नहीं थे।

कपड़ा उत्पादन क्षेत्र में अधिकांश अविष्कारों ने श्रमिकों में उपेक्षा और घृणा को विकसित किया क्योंकि मशीनों ने रोजगारों में कमी ला दी। द स्पिनिंग जेनी एक ऐसा ही आविष्कार था। ऊनी उद्योग में महिलाओं ने विरोध किया और इसे नष्ट करने की मांग की क्योंकि यह बाजार में उनकी जगह ले रहा था।

इस तरह की तकनीकी प्रगति से पहले, ब्रिटेन ने बड़ी संख्या में भारत से रेशम और कपास का सामान आयात किया। भारत के महीन कपास इंग्लैंड में उच्च मांग में थे। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजनीतिक शक्ति प्राप्त की, तो उन्होंने ब्रिटेन में लाभ के लिए भारत में बुनकरों और कपड़ा उद्योग का शोषण किया। बाद में, मैनचेस्टर कपास उत्पादन का केंद्र बन गया। इसके बाद, भारत को ब्रिटिश कपास वस्तुओं के प्रमुख खरीदार के रूप में बदल दिया गया।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटिश कारखाने युद्ध की जरूरतों को पूरा करने में बहुत व्यस्त थे। इसलिए, भारतीय वस्त्रों की मांग एक बार फिर बढ़ गई। ब्रिटेन में कपास का इतिहास मांग और आपूर्ति के ऐसे उतार-चढ़ाव से भरा हुआ है।

4. पहले विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?

उत्तर 

• पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन की मिलें सेना की जरूरतों का सामान बनाने में व्यस्त हो गईं। इससे ब्रिटेन से भारत को आने वाला आयात घट गया। इसके कारण घरेलू बाजार की माँग को पूरा करने के लिए भारत के उद्योगों को अधिक उत्पादन करना पड़ा। भारत के उद्योगों से भी ब्रिटेन की सेना के लिए सामान बनाने के लिये कहा गया। इस तरह से भारत के उत्पादों की माँग बढ़ गई और भारत का औद्योगिक उत्पादन बढ़ गया।

• युद्ध लंबा खिंचा तो भारतीय कारखानों में भी फ़ौज के लिए जूट की बोरियाँ, फ़ौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए|

• पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। बहुत सारे नए मज़दूरों को काम पर रखा गया और हरेक को पहले से भी ज़्यादा समय तक काम करना पड़ता था। युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेज़ी से बढ़ा।

एनसीईआरटी सोलूशन्स क्लास 10 भारत और समकालीन विश्व - 2