NCERT Solutions Class 11 Geography in Hindi (भूगोल) Chapter - 6 (भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ)
Class 11 भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
पाठ-6 (भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ)
1. बहुवैकल्पिक प्रश्न
प्रश्न (1) निम्नलिखित में से कौन-सी एक अनुक्रमिक प्रक्रिया है?
(क) निक्षेप
(ख) ज्वालामुखीयता
(ग) पटल-विरूपण ।
(घ) अपरदन
उत्तर- (घ) अपरदन।
प्रश्न (ii) जलयोजन प्रक्रिया निम्नलिखित पदार्थों में से किसे प्रभावित करती है?
(क) ग्रेनाइट
(ख) क्वार्ट्ज
(ग) चीका (क्ले) मिट्टी
(घ) लवण
उत्तर-(घ) लवण।
प्रश्न (iii) मलवा अवधाव को किस श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है?
(क) भू-स्ख लन
(ख) तीव्र प्रवाही बृहत् संचालन
(ग) मन्द प्रवाही बृहत् संचलन
(घ) अवतल/धसकन।
उत्तर-(क) भू-स्खलन।
2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता के लिए उत्तरदायी है। कैसे?
उत्तर-अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता के लिए उत्तरदायी है। जैव मात्रा एवं जैव विविधता वनस्पति की उपज है। विशेषतः अपक्षय वातावरण एवं खनिजों के अयने के स्थानान्तरण की दिशा में उपयोगी है। इससे नई सतहों का निर्माण होता है, जिससे रासायनिक प्रक्रिया द्वारा सतह में नमी और हवा के वेधन में सहायता मिलती है। इससे मिट्टी के अन्दर ह्युमिक कार्बनिक एवं अम्ल जैसे तत्त्वों के उत्पादन में वृद्धि से जैव विविधता को प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता को योगदान प्रदान करता है।
प्रश्न (ii) बृहत संचलन जो वास्तविक, तीव्र एवं गोचर/अवगम्य (Perceptible) हैं, वे क्या है? सूचीबद्ध कीजिए।
उत्तर-बृहत् संचलन के अन्तर्गत वे सभी संचलन आते हैं, जिनमें शैलों का मलबा (Debris) गुरुत्वाकर्षण के सीधे प्रभाव के कारण ढाल के अनुरूप बृहत् मात्रा में स्थानान्तरित होता है। बृहत् संचलन में कोई भी भू-आकृतिक कारक; जैसे–प्रवाहित जल, हिमानी, वायु आदि सीधे रूप में सम्मिलित नहीं होते हैं। बृहत् संचलन को तीन मुख्य प्रकारों में सूचीबद्ध किया जाता है
- मन्द संचलन,
- तीव्र संचलन तथा
- भूमि संचलन।
प्रश्न (iii) विभिन्न गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारक क्या हैं तथा वे क्या प्रधान कार्य सम्पन्न करते हैं?
उत्तर-विभिन्न गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारक निम्नलिखित हैं
- प्रवाहित जल,
- संचलित हिमखण्ड अथवा हिमानी,
- वायु,
- भूमिगत जल,
- लहरें आदि।
गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारकों का प्रधान कार्य अपरदन या काटव करता है। इनके द्वारा प्रभावित उभरा हुआ धरातलीय भू-भाग अवतलित होता रहता है तथा पूर्व अवतलित क्षेत्रों में भराव अथवा अधिवृद्धि होती है।
प्रश्न (iv) क्या मृदा-निर्माण में अपक्षय एक आवश्यक अनिवार्यता है?
उत्तर-मृदा-निर्माण में अपक्षय एक आवश्यक अनिवार्यता है। अपक्षय जलवायु, चट्टान की संरचना तथा जैविक तत्त्वों पर निर्भर होता है। कालान्तर में ये सभी कारक मिलकर अपक्षयी प्रावार की मूल विशेषताओं को उत्पन्न करते हैं और मृदा-निर्माण के मूल आधार बनते हैं। इसलिए अपक्षय मृदा-निर्माण में आवश्यक अनिवार्यता है।
3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए
प्रश्न (i) “हमारी पृथ्वी भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के दो विरोधात्मक (Opposing) वर्गों के खेल का मैदान है।” विवेचना कीजिए।
उत्तर-हम जानते हैं कि भूपर्पटी गत्यात्मक है। यह क्षैतिज एवं लम्बवत् दिशाओं में संचालित होती रहती है। भूपर्पटी का निर्माण करने वाली पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों में उत्पन्न अन्तर पृथ्वी की बाह्य शक्ति से अनवरत रूप से प्रभावित होता रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि धरातल स्थलमण्डल के अन्तर्गत उत्पन्न बाह्य शक्तियों तथा पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों द्वारा प्रभावित रहता है। आन्तरिक शक्तियाँ धरातल पर रचनात्मक रूप से अपना कार्य करती रहती हैं। महाद्वीप, पर्वत, पठार आदि स्थलाकृतियों का निर्माण इसी शक्ति का परिणाम है जबकि बाह्य शक्तियाँ धरातल के उभरे हुए भागों के समतलीकरण के कार्य में संलग्न रहती हैं। अतएव दोनों शक्तियों की यह भिन्नता तब तक बनी रहती है जब तक बहिर्जनिक एवं अन्तर्जनिक बलों के विरोधात्मक कार्य चलते रहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी इन शक्तियों के खेल का रंगमंच है।
प्रश्न (ii) बर्जिनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ अपनी अन्तिम ऊर्जा सूर्य की गर्मी से प्राप्त करती हैं।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर-बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ वास्तव में अपनी अन्तिम ऊर्जा सूर्यातप से ही प्राप्त करती हैं। तापक्रम और वर्षण दो महत्त्वपूर्ण जलवायु तत्त्व हैं जो विभिन्न प्रकार से सूर्य द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं। ये जलवायु तत्त्व रासायनिक, भौतिक एवं जैविक कारकों को संचालित कर भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को गतिशील रखते हैं। इससे चट्टानों में रासायनिक एवं भौतिक अभिक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं जिसका परिणाम अपक्षय, बृहत् संचलन एवं अपरदन के रूप में प्रकट होता है।
वास्तव में, समस्त वायुमण्डलीय शक्तियों का स्रोत सूर्य ही है। इसी से ऊर्जा एवं अन्तर्जनित शक्तियाँ नियन्त्रित होती हैं। इसी से प्राप्त प्रति इकाई क्षेत्र पर अनुप्रयुक्त शक्ति को प्रतिबल कहते हैं। ठोस पदार्थ में प्रतिबल धक्का और खिंचाव से उत्पन्न होता है। यही प्रतिबल चट्टानों को तोड़ता है। गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल के अतिरिक्त आणविक प्रतिबल से भी धरातल के पदार्थ प्रभावित चट्टानों को तोड़ता है। गुरुत्वाकर्षण प्रतिबल के अतिरिक्त आणविक प्रतिबल से भी धरातल के पदार्थ प्रभावित होते हैं। अतः शक्ति के इन सभी स्रोतों का मूल स्रोत वस्तुतः सूर्य ही है जो अप्रत्यक्ष रूप से अन्य स्रोतों को उत्पन्न करके जलवायु तत्त्वों के रूप में कार्य करता है। यही कारक रासायनिक एवं भौतिक ऊर्जा उत्पन्न करके भू-आकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा भूपर्पटी में परिवर्तन उत्पन्न करता है। हमारे धरातल पर विभिन्न प्रकार के जलवायु प्रदेश उपलब्ध हैं। इन प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं जिसके लिए धरातल पर तापीय प्रवणता, अक्षांशीय दशाएँ, वर्षण एवं अन्य मौसमी दशाएँ उत्तरदायी होती हैं परन्तु इन सभी को नियन्त्रित एवं प्रभावित करने वाला एकमात्र ऊर्जा स्रोत सूर्य ही होता है।
प्रश्न (iii) क्या भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं? यदि नहीं तो क्यों? सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
उत्तर-भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं। अपक्षय के अन्तर्गत वायुमण्डलीय तत्त्वों के प्रति धरातल के पदार्थों की प्रतिक्रिया सम्मिलित होती है। वास्तव में अपक्षय के अन्दर अनेक प्रक्रियाएँ हैं जो पृथक् या सामूहिक रूप से धरातल के पदार्थों को विखण्डित करने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं।
अपक्षय प्रक्रिया का एक वर्ग रासायनिक क्रियाओं; जैसे-जलयोजन, ऑक्सीकरण, कार्बोनेट विलयन, मृदा जल और अन्य अम्ल द्वारा विघटन के लिए कार्यरत रहता है। इसमें ऊष्मा के साथ जल और वायु की विद्यमानता सभी रासायनिक प्रक्रियाओं को तीव्र गति देने के लिए आवश्यक है।
अपक्षय प्रक्रिया का दूसरा वर्ग जिसे भौतिक अपक्षय कहा जाता है. अनुप्रयुक्त बलों पर आश्रित होता है जिसमें तापक्रम, दबाव आदि से चट्टानों में संकुचन एवं विस्तारण के कारण चट्टानों की सन्धियाँ कमजोर होकर विदीर्ण होने लगती हैं।
वास्तव में, भौतिक और रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ दोनों भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी ये दोनों प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से प्रभावित होने के कारण स्वतन्त्र नहीं हैं। उदाहरण के लिए, तापमान जिसे भौतिक अपक्षय का महत्त्वपूर्ण कारक कहा जाता है जब तक सक्रिय नहीं होता तब तक वह चट्टानों की रासायनिक संरचना के साथ अभिक्रिया नहीं करेगा। इसी प्रकार जल किसी चट्टान से तब तक कोई अभिक्रिया नहीं करेगा जब तक उसे ताप या दाब के कारण ऊष्मा प्राप्त नहीं होगी। अत: भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय एक-दूसरे से अलग-अलग होते हुए भी स्वतन्त्र नहीं हैं बल्कि वायुमण्डलीय ऊष्मा के कारण नियन्त्रित हैं।
प्रश्न (iv) आप किस प्रकार मृदा-निर्माण प्रक्रियाओं तथा मृदा कारकों के बीच अन्तर ज्ञात करते हैं? जलवायु एवं जैविक क्रियाओं की मृदा-निर्माण में दो महत्त्वपूर्ण कारकों के रूप में क्या भूमिका है?
उत्तर-किसी प्रदेश में मिट्टियों का निर्माण मृदा-निर्माण कारकों और मृदा-निर्माण प्रक्रिया का परिणाम होता है। मृदा-निर्माण कारकों के अन्तर्गत जलवायु, स्थलाकृति, उच्चावच (मूल पदार्थ) जैविक प्रक्रियाओं और काल अवधि को सम्मिलित किया जाता है, जबकि मृदा-निर्माण प्रक्रिया में मृदा-संवृद्धि, मृदा क्षति, पदार्थों का विस्थापन एवं पदार्थों का रूपान्तरण सम्मिलित है।
अत: मृदाजनित कारक जब निश्चित अवधि तक मृदा संवृद्धि मृदा क्षति तथा पदार्थों के विस्थापन और रूपान्तरण की प्रक्रियाओं में क्रियाशील होते हैं तभी मृदा का निर्माण होता है। अतः मृदा कारक एवं प्रक्रिया दोनों ही मृदा के निर्माण के अलग-अलग पक्ष होते हुए भी समन्वित रूप से कार्य करते हैं तभी किसी प्रदेश की मृदा का निर्माण कार्य सम्पन्न होता है।
जलवायु एवं जैविक कारकों की बूंदा-निर्माण में भूमिका
जलवायु मृदा-निर्माण का सक्रिय कारक है। इसके अन्तर्गत वर्षण, वाष्पीकरण, आर्द्रता और तापक्रम तथा मौसम की दैनिक भिन्नता की प्रमुख भूमिका होती है। वर्षा से मृदा को आर्द्रता मिलती है जिससे रासायनिक और जैविक क्रिया होती है। इन क्रियाओं को तापक्रम के माध्यम से गति प्राप्त होती है। वर्षा के कारण मृदा में अपक्षालन (Leaching) तथा केशिका क्रिया (Capillary Action) होती है जो तापमान की दरों से प्रभावित होती है। अतः जलवायु मृदा-निर्माण का सक्रिय कारक है तथा मृदा प्रक्रिया को संचालित करने में विशेष योगदान देती है (चित्र 6.1)।
जैविक प्रक्रियाएँ या कारक मृदा में नमी धारण करने की क्षमता तथा नाइट्रोजन उत्पत्ति में सहायक होती हैं। मृत पौधे या जैविक अवशेषों से मृदा को ह्युमस प्राप्त होता है। मृदा में ह्यूमस की उपलब्धता एवं अल्पता भी तापमान द्वारा नियन्त्रित होती है। इसी कारण उष्ण प्रदेशों में ह्यूमस की उपलब्धता शीत प्रदेशों की अपेक्षा कम होती है।
अतएव मृदा-निर्माण में जलवायु एवं जैविक प्रक्रिया दो महत्त्वपूर्ण कारक हैं। इन दोनों कारकों के अभाव में अन्य मृदाजनित कारक निष्क्रिय ही रहते हैं। वास्तव में यही वे कारक हैं जो मृदा-निर्माण प्रक्रिया को संचालित करते हैं। इसलिए किसी प्रदेश में मृदा-निर्माण जलवायु और जैविक क्रियाओं पर निर्भर होता हैं।
परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1. समस्त वायुमण्डलीय शक्तियों का स्रोत है
(क) सूर्य
(ख) चन्द्रमा
(ग) तारा
(घ) पृथ्वी
उत्तर-(क) सूर्य।
प्रश्न 2. पेड़-पौधों के सड़े-गले पदार्थ तथा जीवाणुओं के अवशेष क्या कहलाते हैं?
(क) मृदा
(ख) ह्यूमस
(ग) अपरदन
(घ) सन्निघर्षण
उत्तर-(ख) ह्यूमस।
प्रश्न 3. बृहत् संचालन कितने प्रकार का होता है?
(के) एक
(ख) दो
(ग) तीन ।
(घ) चार
उत्तर-(ग) तीन।
प्रश्न 1. सूर्यातप किस प्रकार अपक्षय में सहायक है?
उत्तर-दिन के समय चट्टानें सूर्य के ताप से फैलती हैं तथा रात्रि में ताप का विकिरण होने से सिकुड़ती हैं। फैलने व सिकुड़ने की क्रिया बार-बार होने से अपक्षय में वृद्धि होती है।
प्रश्न 2. रासायनिक अपक्षय किसे कहते हैं? इसकी प्रबलता का क्षेत्र बताइए।
उत्तर-जब वियोजन की क्रिया द्वारा चट्टानें ढीली पड़कर विदीर्ण हो जाती हैं तो इस क्रिया को रासायनिक अपक्षय कहते हैं। रासायनिक अपक्षय आर्द्र जलवायु प्रदेशों में अधिक प्रबल होता है।
प्रश्न 3. जैविक अपक्षय का क्या अर्थ है?
उत्तर-जब अपक्षय क्रिया में मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति का योगदान होता है तो उसे जैविक अपक्षये कहते हैं।
प्रश्न 4. अपक्षय एवं अपरदन में क्या मौलिक अन्तर हैं?
उत्तर-अपक्षय स्थैतिक एवं अपरदन गतिशील प्रक्रियाएँ हैं। अपक्षय में चट्टानें अपने ही स्थान पर टूट-फूटकर चूरामात्र हो जाती हैं परन्तु अपरदन में इस चूर्ण का स्थानान्तरण होता रहता है।
प्रश्न 5. अपरदन के प्रमुख अभिकर्ताओं के नाम लिखिए।
उत्तर-बहता हुआ जल या नदी, पवन, हिमनद, भूमिगत जल एवं समुद्री लहरें प्रमुख अपरदन अभिकर्ता
प्रश्न 6. अनाच्छादन का क्या अर्थ है?
उत्तर-अनाच्छादन का अर्थ है-चट्टान का आवरण हटना। इस क्रिया में अपक्षय एवं अपरदन दोनों प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
प्रश्न 7. बाह्य शक्ति के प्रमुख कारक बतलाइए।
उत्तर-धरातल पर बाह्य शक्ति में तापमान, वर्षा गुरुत्वाकर्षण, बहता जल, पवन तथा हिमनद प्रमुख कारक हैं।
प्रश्न 8. अपरदन में कौन-कौन-सी क्रियाएँ सम्मिलित हैं?
उत्तर-अपरदन में चट्टानों का अपघर्षण, सन्निघर्षण जलगति क्रिया, घोलीकरण, अपवहन तथा परिवहन आदि क्रियाएँ सम्मिलित हैं।
प्रश्न 9. अपक्षय कितने प्रकार का होता है?
उत्तर-अपक्षय मुख्यत: तीन प्रकार का होता है—(1) भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय, (2) रासायनिक अपक्षय एवं (3) जैविक अपक्षय।।
प्रश्न 10. मृदा क्या है?
उत्तर-मृदा धरातल का वह पदार्थ है जिसका निर्माण जलवायु कारकों द्वारा चट्टानों के क्षय से होता है। इसमें ह्यूमस, खनिज एवं लवण तत्त्वों की प्रधानता होती है।
प्रश्न 11. ह्यूमस से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-पेड़-पौधों के सड़े-गले पदार्थ तथा सूक्ष्म जीवाणुओं के अवशेष ह्यूमस कहलाते हैं। यह मृदा में मृत , जैविक पदार्थ है जिससे मृदा में उपजाऊ तत्त्वों का विकास होता है।
प्रश्न 12. अपक्षालन क्या है?
उत्तर-मृदा परिच्छेदिका में ऊपरी सतह से पदार्थों का नीचे की सतह की ओर परिगमन अपक्षालन कहलाता है।
प्रश्न 13. मृदा-निर्माण प्रक्रिया के विभिन्न चरणों के नाम लिखिए।
उत्तर-मृदा-निर्माण प्रक्रिया अग्रलिखित चरणों में सम्पन्न होती है
- पदार्थों का स्थानान्तरण,
- लवणीकरण,
- पदार्थों का कार्बनिक परिवर्तन,
- पोडजोलाइजेशन,
- लैटेराइजेशन।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. मृदा-निर्माण प्रक्रिया में कालावधि, स्थलाकृति एवं मूल पदार्थ को निष्क्रिय कारक क्यों माना जाता है?
उत्तर-मृदा-निर्माण प्रक्रिया में कालावधि, स्थलाकृति एवं मूल पदार्थ तब तक सक्रिय नहीं होते हैं जब तक इन पर कोई रासायनिक या भौतिक अभिक्रिया न हो। इस क्रिया के लिए जलवायु तत्त्वों या अन्य वायुमण्डलीय शक्तियों का सहयोग आवश्यक है। इसी कारण स्थलाकृति, मूल पदार्थ एवं कालावधि को मृदा-निर्माण में निष्क्रिय कारक कहा गया है।
प्रश्न 2. अपक्षय का महत्त्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-अपक्षय का महत्त्व निम्नलिखित है
- अपक्षय की क्रिया द्वारा उपजाऊ मिट्टी का निर्माण होता है। विखण्डित एवं अपरदित शैलों के कण एकत्रित होकर उपजाऊ भूमि में बदल जाते हैं जो कृषि के लिए उपयुक्त है।
- अपक्षय की क्रिया से गन्धक, चूना, जिप्सम आदि उपयोगी खनिज पदार्थ सुगमता से प्राप्त हो जाते
- अपक्षय की क्रिया शैलों को चट्टानी चूर्ण में बदल देती है। इस बारीक शैल-चूर्ण को नदियाँ, हिमनद तथा पवन बहाकर एवं उड़ाकर अन्यत्र ले जाती हैं तथा उन्हें दूसरे स्थान पर जमा कर समतल मैदानों का निर्माण करती हैं जो कृषि-कार्य के लिए उपयोगी होते हैं।
- पर्वतीय क्षेत्रों में ऋतु-अपक्षय के कारण विशाल शिलाखण्ड टूटते-फूटते रहते हैं, जिनसे नदियों की घाटियाँ अवरुद्ध हो जाती हैं और झीले बन जाती हैं।
- अपक्षय की क्रिया द्वारा भूमि का अपक्षरण सरल हो जाता है।
- शैलों को अपक्षय एवं निक्षेपण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अति महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मूल्यवान खनिजों; जैसे-लोहा, मैंगनीज, ऐलुमिनियम, ताँबा के अयस्कों के समृद्धीकरण एवं सकेन्द्रण में यह सहायक होता है।
प्रश्न 3. मृदा परिच्छेदिका (Profile) का अर्थ बताइए तथा मृदा परिच्छेदिका परतों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-प्रत्येक प्रकार की मिट्टी में विकसित संस्तर उसकी परिच्छेदिका कहलाता है। मृदा परिच्छेदिका में निम्नलिखित चार परतें स्पष्ट रूप से प्रकट होती हैं|
- ऊपरी मृदा या A संस्तर-यह मृदा की सबसे ऊपरी परत होती है जिसमें महीन कण, रासायनिक और जैविक पदार्थ, ह्यूमस आदि पाए जाते हैं।
- उपमृदा या B संस्तर-यह मृदा परिच्छेदिका की दूसरी परत है, इसमें अपक्षयित पदार्थ बालू, गाद तथा चिकनी मिट्टी आदि के पदार्थ होते हैं। यहाँ जल रिसाव के कारण आर्द्रता बनी रहती है।
- अपक्षयित चट्टान या c संस्तर-मृदा परिच्छेदिका के इस भाग में चट्टान के अपक्षयित पदार्थ पाए जाते हैं, जिनका अपक्षरण पूरी तरह से नहीं होता है।
- आधारी चट्टान या D संस्तर-यह परिच्छेदिका का आधार होता है जिसमें मूल चट्टानी पदार्थ अपक्षयित नहीं होता है।
प्रश्न 4. क्या शैलों के अपक्षय के बिना पर्याप्त अपरदन सम्भव हो सकता है?
उत्तर-अपरदन द्वारा उच्चावचे का निम्नीकरण होता है, अर्थात् भूदृश्य विघर्षित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि अपक्षय अपरदन में सहायक होता है, लेकिन अपक्षय अपरदन के लिए अनिवार्य दशा नहीं है।
प्रश्न 5. शैल एवं मृदा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-शैल एवं मृदा में अन्तर
प्रश्न 6. मृदा निर्माणकारी सक्रिय एवं निष्क्रिय कारकों में अन्तर बताइए।
उत्तर-मृदा निर्माणकारी सक्रिय एवं निष्क्रिय कारकों में अन्तर
प्रश्न 7. शुष्क एवं आर्द्र जलवायु प्रदेशों की मिट्टियों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- शुष्क एवं आद्र जलवायु प्रदेशों की मिट्टियों में अन्तर
प्रश्न 8. पृथ्वी के अन्तर्जात या आन्तरिक बल किस प्रकार स्थलरूपों के विकास में सहायक हैं। वर्णन कीजिए।
उत्तर-अन्तर्जात बल पृथ्वी के अन्तरतम में दो प्रकार की गतियों को जन्म देते हैं-(1) क्षैतिज गति एवं (2) लम्बवत् या ऊध्र्वाधर गति। इन दोनों गतियों के परणिामस्वरूप आन्तरिक भागों में उत्पंन्न होने वाले परिवर्तनों की प्रतिक्रिया धरातल के बाह्य भाग पर भी होती है। धरातल के बाह्य भागों में पर्वत, पठार, मैदान तथा भ्रंशन आदि स्थलाकृतियाँ बनती व बिगड़ती रहती हैं। पृथ्वी के आन्तरिक भागों में मुख्यतः आकस्मिक गतियाँ और पटल विरूपणी प्रक्रिया स्थलरूपों के विकास में सहायक हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
1. आकस्मिक गतियाँ-इस गति के परिणामस्वरूप पृथ्वी के आन्तरिक भागों में अचानक हलचल प्रारम्भ हो जाती है। ये गतियाँ मानव के लिए अत्यन्त विनाशकारी होती हैं क्योंकि इनसे ज्वालामुखी उद्गार और भूकम्प की उत्पत्ति होती है। ज्वालामुखी द्वारा आन्तरिक भाग में बैथोलिथ, फैकोलिथ, लैपोलिथ, डाइक आदि तथा बाह्य भाग में विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी शंकु और लावा पठारों को निर्माण होता है। भूकम्प द्वारा विभिन्न प्रकार की दरार और भ्रंशों का विकास होता है।
2. पटल विरूपण गतियाँ-पृथ्वी के आन्तरिक भाग में लम्बवत् या क्षैतिज दोनों प्रकार की गतियाँ सक्रिय रहती हैं। ये गतियाँ मंद गति से अपना कार्य सम्पन्न करती हैं। इनके द्वारा महाद्वीप एवं पर्वतों का निर्माण विभिन्न प्रकार की भूसंचलन प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं।
प्रश्न 9. भूसंचलन से आप क्या समझते हैं? भूसंचलन प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-भूसंचलन
भूपटल पर पाए जाने वाले विविध स्थलरूपों के विकास में भूसंचलन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भूसंचलन पृथ्वी की आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों की पारस्परिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। आन्तरिक शक्तियाँ भूगर्भ से तथा बाह्य शक्तियाँ वायुमण्डल से सम्बन्धित हैं। आन्तरिक शक्तियों द्वारा धरातल पर पर्वत, पठार, मैदान आदि अनेक स्थलरूपों का निर्माण होता है; अतः इन्हें संरचनात्मक बल कहा जाता है। इसके विपरीत बाह्य शक्तियों को विनाशात्मक बल कहा गया है, क्योंकि ये चट्टानों को विदीर्ण करके अपने स्थान से हटाकर अन्यत्र एकत्रित करती रहती हैं। अत: भूसंचलन प्रकृति के परिवर्तनशील स्वभाव का परिचायक है जो पृथ्वी पर उसकी आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों द्वारा विविध स्थलरूपों के निर्माण एवं विनाश के रूप में प्रकट होता है।
भूसंचलन प्रकृति की परिवर्तनशीलता का परिचायक है। यह प्रक्रिया पृथ्वी की आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों द्वारा सम्पन्न होती है। निम्नांकित वर्गीकरण द्वारा भूसंचलन प्रक्रिया को समझाया गया है
प्रश्न 10. महाद्वीप एवं पर्वत निर्माणकारी गतियों का विवरण दीजिए।
उत्तर-. महाद्वीप निर्माणकारी गतियाँ-महाद्वीपों के निर्माण, उत्थान और अवतलन की क्रियाएँ इन्हीं गतियों द्वारा सम्पन्न होती हैं। ये गतियाँ लम्बवत् स्थलाकृतियों को जन्म देती हैं। दिशा के आधार पर इन गतियों को दो भागों में विभक्त किया जाता है
(अ) उपरिमुखी संचलन-महाद्वीपों में ये गतियाँ दो प्रकार के उत्थान उत्पन्न करती हैं। प्रथम राति में महाद्वीप का कोई भाग ऊपर उठता है, परन्तु द्वितीय गति में केवल महाद्वीपों का तटीय भाग समुद्रतल से ऊपर उठता है, जिसे निर्गमन कहते हैं।
(ब) धोमुखी संचलन-इस गति के अन्तर्गत महाद्वीपों में दो प्रकार का धंसाव होता है—प्रथम दशा में महाद्वीप का कोई खण्ड पहली सतह से नीचे चला जाता है। द्वितीय दशा में महाद्वीप का कोई खण्ड समुद्रतल से नीचे चला जाता है तथा जलमग्न हो जाता है। सागरतटीय भागों में यह स्थिति अधिक पाई जाती है।
2. पर्वत निर्माणकारी गतियाँ-ये गतियाँ क्षैतिज दिशा में स्थलरूपों का निर्माण करती हैं। पर्वत निर्माणकारी गतियाँ जब विपरीत दिशाओं में क्रिया करती हैं तो चट्टानों में भ्रंश उत्पन्न होता है। परन्तु जब ये गतियाँ आमने-सामने अर्थात् सम्मुख दिशा में कार्य करती हैं तो सम्पीडन उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप चट्टानों में भिंचाव से वलन एवं संवलन की उत्पत्ति होती है।।
प्रश्न 11. बृहत संचलन का अर्थ बताइए तथा इसमें प्रक्रिया कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के कारक चट्टान या चट्टानी पदार्थ का ढाल के अनुरूप स्थानान्तरण संचलन या बृहत् संचलन कहलाता है। इस प्रकार के मलवा संचलन में संचलन की गति मन्द से. तीव्र हो सकती है, जिनके अन्तर्गत, विसर्पण बहाव, स्खलन एवं पतन (Fall) सम्मिलित होता है। दूसरे शब्दों में, बृहत् संचलन का तात्पर्य है कि वायु, जल, हिम ही अपने साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक मलवा नहीं ढोते, अपितु मलवा भी अपने साथ वायु, जल या हिम ले जाता है। बृहत् संचलन में गुरुत्वाकर्षण शक्ति सहायक होती है तथा कोई भी भू-आकृतिक कारक; जैसे–प्रवाहित जल, हिमानी, वायु, लहरें एवं धाराएँ बृहत् संचलन की प्रक्रिया में सीधे ही सम्मिलित नहीं होते हैं साथ ही इसमें अपरदन भी सम्मिलित नहीं होता है। यद्यपि पदार्थों का संचलन गुरुत्वाकर्षण के सहयोग से एक से दूसरे स्थान को होता रहता है। बृहत् संचलन में अपरदन के अतिरिक्त अपक्षय भी
अनिवार्य नहीं होता है, परन्तु अपक्षय बृहत् संचलन को बढ़ावा अवश्य देता है। इसीलिए बृहत्.संचलन अपक्षयित ढालों पर अनपक्षयित पदार्थों की अपेक्षा बहुत अधिक सक्रिय होता है। अतः असम्बद्ध कमजोर चट्टानी पदार्थ छिछले संस्तर वाली शैलें, भ्रंश, तीव्रता से झुके संस्तर खड़े भृगु या तीव्र ढाल, पर्याप्त वर्षा, वनस्पति अभाव और गुरुत्वाकर्षण बल बृहत् संचलन में विशेष रूप से सहायक हैं। यह तथ्य चित्र सं० 6.2 से भी स्पष्ट है।
सक्रिय कारक-बृहत् संचलन की सक्रियता में निम्नलिखित कारक मुख्य रूप से सम्मिलित होते हैं
- प्राकृतिक एवं कृत्रिम साधनों द्वारा ऊपर के पदार्थों के टिकने के आधार का हटना।
- ढाल प्रवणता एवं ऊँचाई में वृद्धि।
- प्राकृतिक एवं कृत्रिम भराव या अत्यधिक वर्षा के कारण उत्पन्न अतिभार।
- मूल ढाल की सतह से भार या पदार्थ का हटना।
- भूकम्प, मशीनी कम्पन या विस्फोट।
- अत्यधिक प्राकृतिक रिसावे।
- झीलों, जलाशयों एवं नदियों से भारी मात्रा में जल का निष्कासन, परिणामस्वरूप ढालों एवं नदी तटों के नीचे से जल का मन्द गति से बहना।
- वनस्पति का अत्यधिक विनाश।
प्रश्न 12. बृहत संचलन कितने प्रकार का होता है? वर्णन कीजिए।
उत्तर-बृहत् संचलन निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है–
1. मन्द संचलन-इसमें मलबा संचलन इतना मन्द होता है कि इसका आभास करना कठिन होता है। | और दीर्घकाल के अवलोकन या निरीक्षण से ही इसका पता चलता है। इसमें सम्मिलित पदार्थ में शैल चूर्ण मृदा की मात्रा अधिक होती है।
2. तीव्र संचलन-ये संचलन आर्द्र जलवायु वाले प्रदेशों में निम्न से लेकर तीव्र ढालों में अधिक होते। हैं। इस संचलन में चिकनी मिट्टी, कीचड़ प्रवाह एवं मलबा पदार्थों की प्रधानता होती है।
3. भू-स्खेलन-भू-स्खलने अपेक्षाकृत तीव्र एवं अवगम्य संचलन है। इसमें स्खलित होने वाले पदार्थ प्रायः शुष्क होते हैं। भू-स्खलन में पदार्थों के संचलन के प्रकार के आधार पर कई प्रकार के स्खलन पहचाने जा सकते हैं; जैसे कि चित्र 6.3 में दिखाए गए हैं। (ढाल के सन्दर्भ में भू-स्खलन के कई प्रकार हैं; जैसे—अवसर्पण, शैलसर्पण आदि)।
हमारे देश में भू-स्खलन की घटना हिमालय क्षेत्र में अधिक देखी जाती है। इसका मुख्य कारण हिमालय विवर्तनिकी सक्रियता एवं ढाल के कारण गुरुत्वाकर्षण शक्ति की प्रबलता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ऋतु-अपक्षय से क्या तात्पर्य है? इसे नियन्त्रित करने वाले प्रमुख कारकों का वर्णन कीजिए।
या ऋतु-अपक्षय से आप क्या समझते हैं? अपक्षय का वर्गीकरण कीजिए एवं इसके कार्य बताइए।
या ऋतु-अपक्षय पृथ्वी की चट्टानों को किन रूपों में प्रभावित करती है? ऋतु-अपक्षय के मानव-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ऋतु-अपक्षय
भूपटल पर दो प्रकार की शक्तियाँ कार्यरत हैं—आन्तरिक एवं बाह्य। यही शक्तियाँ भूपृष्ठ के भौतिक स्वरूप में लगातार परिवर्तन करती रहती हैं। पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों में ज्वालामुखी तथा भूकम्प मुख्य हैं तथा बाह्य शक्तियों में धरातल को अपरदित करने वाले कारक-जल, वायु, सूर्यातप, हिमानी, सागरीय तरंगें आदि हैं। आन्तरिक शक्तियाँ धरातल को असमतल करने में लगी रहती हैं, जबकि बाह्य शक्तियाँ इस ऊबड़-खाबड़ धरातल को समतल करने में अपना योगदान देती हैं। मोंकहाउस नामक विद्वान के शब्दों में, “अपक्षय में उन सभी साधनों के कार्य शामिल हैं जिनके द्वारा पृथ्वी तल के किसी भी भाग का अत्यधिक विनाशें, अपव्यय एवं हानि होती है। इस अपार विनाश से जो पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर निक्षेपित हो जाता है, उसके द्वारा अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है।
” इस प्रकार, ”मौसम के तत्त्वों द्वारा पृथ्वी पर विखण्डन की वह क्रिया, जिसमें चट्टानों का संगठन ढीला पड़ जाता है तथा वे टूटकर खण्ड-खण्ड हो जाती हैं, अपक्षय या ऋतु-अपक्षय कहलाती है।” हिण्डस ने भी कहा है कि “अपक्षय यान्त्रिक विघटन या रासायनिक अपघटन की वह क्रिया है जो चट्टानों के भौतिक स्वरूप को समाप्त करती रहती है।”
अपक्षय को नियन्त्रित करने वाले प्रमुख कारक
अपक्षय को नियन्त्रित करने वाले मुख्य कारक निम्नलिखित हैं
1. तापमान-जलवायु की विभिन्नता अपक्षय का एक प्रमुख कारक है। उष्ण एवं शुष्क जलवायु | प्रदेशों में वर्षा बहुत कम होती है। इसीलिए दिन में अत्यधिक तापक्रम के कारण चट्टानें फैल जाती हैं तथा रात्रि में ठण्ड पाने से सिकुड़ती हैं। बार-बार इस प्रक्रिया से चट्टानों में विघटन तथा वियोजन को बढ़ावा मिलता है। शीतोष्ण प्रदेशों में अधिक ठण्ड पड़ने के कारण जल चट्टानों की दरारों में ठोस (हिम) रूप में जम जाता है तथा दिन में यह हिम पिघलकर जल में परिवर्तित हो जाती है। इससे चट्टानों में तोड़-फोड़ की क्रिया होती है। इस प्रकार अति शीत-प्रधान प्रदेशों में रासायनिक और जैविक अपक्षय अधिक होता है।
2. चट्टानों की संरचना एवं संगठन-भूपृष्ठ के किसी भाग का अपक्षय चट्टानों की संरचना एवं संगठन पर निर्भर करता है। कमजोर, कोमल तथा असंगठित चट्टानों में विघटन तथा अपघटन की | क्रियाएँ तीव्रता से होती हैं। घुलनशील खनिजों वाली चट्टानों में रासायनिक अपक्षय की क्रिया भी शीघ्र होती है, जबकि कठोर चट्टानों में यह क्रिया कम होती है। यदि चट्टानों की परतें लम्बवत् हों तो उन पर जल, वायु, तुषारापात एवं सूर्यातप का प्रभाव शीघ्र पड़ता है, जबकि क्षैतिज अवस्था की। चट्टानों में अपक्षय का प्रभाव कम हो जाता है।
3. ढाल का स्वरूप-तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों में विघटन क्रिया सरलता से होती है, क्योंकि यहाँ चट्टानों का स्वरूप बड़ा ही दुर्बल होता है। इसीलिए ऊपरी भागों से चट्टानी खण्ड टूट-टूटकर नीचे घाटी में गिरने लगते हैं। इसके विपरीत कम ढाल वाले भागों में चट्टानें अधिक संगठित, कठोर एवं शक्तिशाली होती हैं। मलबे का स्थानान्तरण न हो पाने के कारण अपक्षय क्रिया भी बहुत कम होती है।
4. वनस्पति का प्रभाव-वनस्पति अपक्षय को दोनों रूपों में प्रभावित करती है। बनस्पतिविहीन प्रदेशों में अधिक ताप के कारण चट्टानें फैलती हैं तथा सिकुड़ने के बाद विघटित हो जाती हैं।
अपक्षय के प्रकार एवं उनके कारक
अपक्षय क्रिया के निम्नलिखित कारक हैं-
1. भौतिक या यान्त्रिक कारक-(i) बहता हुआ जल और वर्षा, (ii) सूर्यातप, (iii) पाला, (iv) वायु, (v) हिम एवं (vi) सागरीय लहरें।
2. रासायनिक कारक-(i) ऑक्सीकरण, (ii) कार्बनीकरण एवं (iii) घोलीकरण।
3. जैविक कारक-(i) वनस्पति, (ii) जीव-जन्तु एवं (iii) मानव।
अपक्षय का वर्गीकरण एवं कार्य
अपक्षय को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है–
1. भौतिक या यान्त्रिक अपक्षय-इस प्रक्रिया में भौतिक तत्त्वों द्वारा चट्टानों का अपक्षय होता है। इन तत्त्वों में ताप प्रमुख यान्त्रिक कारक है। अपक्षय की इस क्रिया में चट्टानों का फैलाव एवं संकुचन होता है जिससे वे टूट-फूटकर शिलाचूर्ण बन जाती हैं। यान्त्रिक अपक्षय के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
(i) जल-बहता हुआ जल, वर्षा का जल एवं स्थिर जल चट्टानों को विघटित करता रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों से निकलने वाली नदियाँ तीव्र ढाल से प्रवाहित होने के कारण पर्वतीय भागों को काट देती हैं। वर्षा का जल चट्टानों की दरारों में भरकर उनका विघटन कर देता है। शीत प्रदेशों में जल हिम के रूप में चट्टानी दरारों में भर जाता है। दिन के समय यही जल पिघल जाता है। जल चट्टानों के भौतिक एवं रासायनिक दोनों प्रकार के विघटन में सहायक होता है।
(ii) सूर्यातप-उष्ण एवं शुष्क मरुस्थलीय भागों में दिन के समय चट्टानें सूर्य की गर्मी पाकर फैलती हैं तथा रात्रि में ठण्ड पाकर सिकुड़ती हैं। इस क्रिया के बार-बार होने से चट्टानों में दरारें पड़ जाती हैं। इन क्षेत्रों में चट्टानों का अपक्षय मोटे बालू-कणों के रूप में होता है।
(iii) हिम या पाला-चट्टानों की सन्धियों में वर्षा का जल प्रवेश कर जाता है। शीत एवं शीतोष्ण प्रदेशों में यही जल हिम के रूप में जम जाता है। इसके आयतन में वृद्धि होने के कारण चट्टानों में दरारें एवं चटकन पड़ जाती हैं तथा चट्टानों का विघटन होकर वे खण्ड-खण्ड हो जाती हैं।=
(iv) वायु-वायु अपक्षय का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। वायु अपघर्षण, सन्निघर्षण तथा अपवाहन क्रियाओं द्वारा चट्टानों का अपक्षय करती है।
(v) समुद्री लहरें-तटवर्ती भागों में समुद्री लहरें बड़े-बड़े शिलाखण्डों को काट देती हैं तथा . तटों का रूप परिवर्तित करती रहती हैं। समुद्र तट पर लम्बवत् चट्टानों में अधिक विघटन होता है।
2. रासायनिक अपक्षय-भौतिक अपक्षय के साथ-साथ चट्टानों का रासायनिक अपक्षय भी होता है। वायुमण्डल के निचले स्तर की सभी गैसें; जैसे—कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन, जलवाष्प, नाइट्रोजन आदि वर्षा जल से क्रिया कर रासायनिक अपक्षय में वृद्धि करती हैं। इससे चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं और अपघटित होकर विखण्डित हो जाती हैं। रासायनिक अपक्षय निम्नलिखित विधियों के अनुसार होता है–
(i) ऑक्सीकरण-वर्षा अथवा नदियों का जल ऑक्सीजन को अपने साथ घोलकर चट्टानों से क्रिया करता है, जिसे ऑक्सीकरण कहते हैं। चट्टानों का लोहा ऑक्सीजन के प्रभाव से ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाता है। यही कारण है कि वर्षा ऋतु में लोहे पर जंग लग जाती है। इस क्रिया में चट्टानों का आयतन बढ़ जाता है तथा वे ढीली होकर टूट जाती हैं।
(ii) कार्बनीकरण-कार्बन डाइऑक्साइड गैस जब जल से रासायनिक क्रिया करती है तो वह विभिन्न खनिजों के साथ रासायनिक क्रिया द्वारा कार्बोनेट बनाती है। ये कार्बोनेट चट्टानों के घुलनशील तत्त्वों से अलग होकर जल में मिल जाते हैं। इससे शैलों का संगठन कमजोर पड़ जाता है तथा वे वियोजित हो जाती हैं।
(iii) घोलीकरण-जल के चट्टानों में अवशोषित होने की क्रिया को घोलीकरण कहते हैं। इससे उनका आयतन बढ़ जाता है तथा चट्टानों के कणों एवं खनिजों में तनाव, दबाव एवं खिंचाव की क्रिया आरम्भ हो जाती है। इससे चट्टानों को अपक्षय प्रारम्भ हो जाता है।
3. जैविक अपक्षय–धरातल पर जैविक अपक्षय वनस्पति, जीव-जन्तु एवं मानव द्वारा निम्नलिखित प्रकार से सम्पन्न होता है
(i) वानस्पतिक अपक्षय-चट्टानों की दरारों में जब पेड़-पौधों की जड़ें प्रवेश करती हैं तो जड़े धीरे-धीरे मोटी होती जाती हैं। चट्टानों की दरारें अधिक चौड़ी होने पर टूट जाती हैं जो अपक्षय में सहायक होती हैं। वनस्पति के मिट्टी में सड़ने-गलने से रासायनिक क्रिया द्वारी जीवांश की उत्पत्ति होती है।
(ii) जीव-जन्तु अपक्षय-पृथ्वी तल पर जितने भी जीव-जन्तु हैं, वे सभी अपक्षय में सहायक हैं। इनके द्वारा भौतिक एवं रासायनिक दोनों ही अपक्षय होते हैं। लोमड़ी, गीदड़; बिज्जू, केंचुए, चूहे, दीमक तथा कुछ अन्य जीव-जन्तु अपनी सुरक्षा के लिए चट्टानों में अपनी गुफा तथा बिल बनाते हैं जिससे भूमि को काफी मलबा बाहर आ जाता है।
(iii) मानवकृत अपक्षय-मानव अपनी रचनात्मक क्रियाओं; जैसे—कुएँ, झीलें, नहरें तालाब, रेल, सड़कें, खान, कृषि (जुताई) आदि के लिए भूमि से मिट्टी खोदता है जिससे चट्टानें असंगठित हो जाती हैं तथा धीरे-धीरे वे टूटती रहती हैं।
ऋतु-अपक्षय का महत्त्व अथवा मानव जीवन पर प्रभाव
ऋतु-अपक्षय अपनी निम्नलिखित उपादेयता द्वारा अपनी महत्ता सिद्ध करता है–
1. उपजाऊ मिट्टी का निर्माण-ऋतु-अपक्षय शैलों के विखण्डन द्वारा कृषि के लिए उपयोगी तथा उपजाऊ मिट्टी का निर्माण करता है। उपजाऊ मिट्टी कृषि का आधार है और कृषिगत उपजें मानव-जीवन का आधार होती हैं। ऋतु-अपक्षय उपजाऊ मिट्टी का निर्माण करके मानव को पर्याप्त हित करता है।
2. खनिज पदार्थों की उपलब्धता-शैलों के टूटने से चूना, गन्धक, चाक तथा जिप्सम आदि उपयोगी खनिजों का निर्माण होता है। ये खनिज बड़े उपयोगी होते हैं।
3. समतल मैदानों का निर्माण-ऋतु-अपक्षय के कारक अपने द्वारा घर्षित अवसाद अन्यत्र ले | जाकर तथा बिछाकर समतल मैदानों का निर्माण कर कृषि, उद्योग, परिवहन तथा मानव बसाव के रूप में मानव का हित सम्पादन करते हैं।
4. धरातल के स्वरूप में परिवर्तन-नदियाँ, हिमनद्, पवन तथा सागरीय लहरें अपक्षये द्वारा धरातल का स्वरूप ही बदल डालते हैं। इसके द्वारा झरने, घाटी तथा बालू के टीलों का निर्माण होता है जो अनेक प्रकार से उपयोगी होते हैं।
5. झीलों का निर्माण-अपक्षय के कारक भूस्खलन द्वारा गर्त बनाते हैं जिनमें जलभराव से झील बन जाती है। झीलें अनेक प्रकार से मानव का हित करती हैं।
प्रश्न 2. रासायनिक एवं जैविक अपक्षय का वर्णन कीजिए।
उत्तर-रासायनिक अपक्षय
जब वियोजन की क्रिया द्वारा चट्टानें ढीली पड़कर विदीर्ण हो जाती हैं तो इस क्रिया को रासायनिक अपक्षय कहते हैं। रासायनिक अपक्षय आर्द्र जलवायु में अधिक प्रबल होता है क्योंकि इसके लिए जल का होना बहुत आवश्यक है। ऑक्सीजनं, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन आदि गैसें रासायनिक अपक्षय का महत्त्वपूर्ण साधन हैं जो रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा शैलों के संगठन एवं संरचना में परिवर्तन उत्पन्न करती हैं। इससे शैलें टूट जाती हैं। रासायनिक अपक्षय निम्नलिखित रूपों में सम्पन्न होता है।
(क) ऑक्सीकरण-शैलों में उपस्थित लोहांश जब ऑक्सीजन गैस के सम्पर्क में आता है तब रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप लोहे के कण ऑक्साइडों में परिवर्तित हो जाते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप चट्टानों का आयतन बढ़ जाता है। आयतन बढ़ने से शैलों का संगठन ढीला पड़ जाता है। तथा उनका अपक्षय होने लगता है। इन प्रक्रिया से चट्टानें शीघ्रता से टूट जाती हैं।
(ख) कार्बनीकरण-कार्बन डाइऑक्साइड गैस जल के साथ क्रिया कर हल्का अम्ल बनाती है। यह अम्ल शैलों में पाए जाने वाले चूने के अंश को घोल लेता है, जिससे कैल्सियम कार्बोनेट का निर्माण होता है। इस प्रकार शैलों का संगठन निर्बल पड़ जाता है और वे घुलकर टूट जाती हैं।
(ग) जलयोजन-जल में हाइड्रोजन गैस उपस्थित रहती है। जैसे ही यह गैस शैलों के सम्पर्क में आती है उनके आयतन में वृद्धि कर देती है, फलतः उन पर तनाव पैदा होता है, जिसके कारण उनमें उपस्थित खनिज लवण चूर्ण-चूर्ण हो जाते हैं तथा शैलों के स्तर उखड़ने लगते हैं। इस प्रकार जलयोजन से अपक्षय की क्रिया सक्रिय रहती है।
जैविक अपक्षय
अपक्षय की क्रिया में जैविक तत्त्वों का भी सहयोग रहता है। मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति द्वारा किया गया अपक्षय जैविक अपक्षय कहलाता है। यह निम्नलिखित प्रकार का होता है
(क) जीव-जन्तुओं द्वारा अपक्षय-अनेक जीव-जन्तु; जैसे-लोमड़ी, गीदड़, केंचुए, चूहे, सर्प, दीमक आदि शैलों में बिल बनाकर निवास करते हैं। उनके द्वारा खोदी गई मिट्टी को जल, वायु, | हिमानी बहाकर ले जाती है जिससे शैलों का अपक्षय हो जाता है। जीव-जन्तुओं द्वारा भौतिक तथा रासायनिक दोनों ही प्रकार का अपक्षय सम्पन्न होता है।
(ख) वनस्पति द्वारा अपक्षय-अपक्षय में पेड़-पौधे भी सहयोग देते हैं। इनके द्वारा भी भौतिक एवं रासायनिक दोनों प्रकार का अपक्षय किया जाता है। प्रायः पेड़-पौधों की जड़ें अपनी वृद्धि द्वारा चट्टानों को तोड़ने का कार्य करती हैं, जो इनका भौतिक कार्य है। वनस्पति के अंश सड़-गलकर रासायनिक अपक्षय उत्पन्न करते हैं।
(ग) मानव द्वारा अपक्षय-मनुष्य भी अपनी रचनात्मक, आर्थिक क्रियाओं द्वारा शैलों को विघटित करता रहता है। वह रेलवे लाइन बिछाने, नहरें एवं सुरंग खोदने तथा खनिज पदार्थों को भू-गर्भ से निकालने के लिए धरातल को खोदता है। इस प्रकार शैलों का संगठन ढीला पड़ जाता है, जिससे कालान्तर में शैलें अपरदित हो जाती हैं।
प्रश्न 3. पृथ्वी की बाह्य शक्तियों से क्या अभिप्राय है? इस शक्ति के अन्तर्गत अनाच्छादन का वर्णन कीजिए।
या बाह्य प्रक्रियाओं के ऊर्जा स्रोत को स्पष्ट कीजिए
उत्तर- बाह्य शक्ति
भूपटल परं पाए जाने वाले विविध स्थलरूपों के विकास में भूसंचलन का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भूसंचलन आन्तरिक एवं बाह्य शक्तियों की पारस्परिक क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। ‘बाह्य शक्तियों का सम्बन्ध वायुमण्डल से है। ये शक्तियाँ आन्तरिक शक्तियों द्वारा निर्मित स्थलरूपों में काट-छाँट करती हुई नई स्थलाकृतियों को जन्म देती हैं, जिससे कालान्तर में धरातल का निम्नीकरण होता है। इस कारण ‘बाह्य शक्तियों को ‘विनाशात्मक बल’ भी कहा जाता है। धरातल पर विनाश की यह प्रक्रिया तापमान, वर्षा, गुरुत्वाकर्षण, नदी, पवन, हिमनद आदि कारकों द्वारा निरन्तर चलती रहती है। इन कारकों से चट्टानें विदीर्ण होकर अपने स्थान से हट जाती हैं तथा किसी उपयुक्त स्थान पर उनका जमाव होता रहता है।
अनाच्छादन
अनाच्छादन का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द ‘Denudation’ है, जिसकी व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के Denudare शब्द से हुई है। ‘डेन्यूड़े का अर्थ आवरण हटने से है। इस प्रकार अनाच्छादन का शाब्दिक अर्थ धरातल के आवरण के हटने या कटने से है।
मोंकहाउस के शब्दों में, “अनाच्छादन शब्द का प्रयोग विस्तृत रूप में उन सभी साधनों के कार्यों के लिए किया जाता है, जिनसे भूपटल के किसी भाग का विनाश, अपव्यय तथा हानि होती है, इस प्रकार पृथक् हुए पदार्थ का अन्यत्र निक्षेप होता है, जिससे परतदार चट्टानें बनती हैं।”
अनाच्छादन के अन्तर्गत मुख्यत: दो प्रकार की प्रक्रियाएँ निहित होती हैं—स्थैतिक प्रक्रियाएँ (अपक्षयु) तथा गतिशील प्रक्रियाएँ (अपरदन) (चित्र 6.4)। स्थैतिक प्रक्रिया में कोई भी चट्टान अपने ही स्थान पर टूट-फूटकर चूरा मात्र हो जाती है। इसमें ताप, वर्षा, तुषार, वनस्पति, जीव-जन्तु आदि कारकों का महत्त्वपूर्ण योग होता है। यह स्थैतिक प्रक्रिया अपक्षय कहलाती है। गतिशील प्रक्रिया के अन्तर्गत चट्टानों का विदीर्ण होना, विदीर्ण पदार्थों का परिवहन तथा निक्षेप सम्मिलित है। यह कार्य प्रवाही जल, पवन, हिमनद, भूमिगत जल आदि कारकों द्वारा सम्पन्न होता है। यह गतिशील प्रक्रिया अपरदन कहलाती है।
प्रश्न 4. क्या मृदा-निर्माण कारक संयुक्त रूप से कार्यरत रहते हैं? विवेचना कीजिए।
या मृदा-निर्माण के कारक बताइए तथा इनके संयुक्त प्रभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर- मृदा-निर्माण के कारक
मृदा धरातल पर प्राकृतिक तत्त्वों का समुच्चय है जिसमें जीवित पदार्थ तथा पौधों का पोषित करने की क्षमता होती है। इसके निर्माण में निम्नलिखित पाँच मूल कारकों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है(1) जलवायु, (2) मूल पदार्थ (शैल/चट्टान), (3) स्थलाकृति, (4) जैविक क्रियाएँ एवं (5) कालावधि (चित्र 6.5)।
वास्तव में मृदा-निर्माण में प्रयुक्त कारक एकाकी रूप से सक्रिय नहीं होते हैं, बल्कि ये कारक संयुक्त रूप से कार्यरत रहते हैं एवं एक-दूसरे के कार्य को प्रभावित करते हैं (चित्र 6.5)। इनका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है
1. जलवायु-मृदा-निर्माण में जलवायु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सक्रिय कारक हैं। मृदा के निर्माण एवं विकास में जलवायु के निम्नलिखित कारक प्रमुख रूप से योगदान देते हैं-
- प्रवणता, वर्षा एवं वाष्पीकरण की बारम्बारता,
- आर्द्रता अवधि,
- तापक्रम में मौसमी एवं दैनिक भिन्नता।
2. मूल पदार्थ अथवा चट्टान-मृदा-निर्माण में चट्टान अथवा मूल पदार्थ निष्क्रिय किन्तु महत्त्वपूर्ण नियन्त्रक कारक है। मृदा-निर्माण गठन, संरचना शैल निक्षेप के खनिज एवं रासायनिक संयोजन पर निर्भर होते हैं।
3. स्थलाकृति या उच्चावच-स्थलाकृति या उच्चावच भी मृदा-निर्माण का निष्क्रिय कारक है। इस कारक में मृदा-निर्माण और विकास पर ढाल का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। तीव्र ढालों पर मृदा | छिछली तथा सपाट, उच्च क्षेत्रों में गहरी या मोटी होती है। निम्न ढालों पर जहाँ अपरदन मन्द तथा जल का परिश्रवण अच्छा रहता है, वहाँ मृदा-निर्माण बहुत अनुकूल होता है।
4. जैविक क्रियाएँ-जैविक क्रियाएँ मृदा के विकास में महत्त्वपूर्ण होती हैं। वनस्पति आवरण एवं जीव के मूल पदार्थों में विद्यमान रहने पर ही मिट्टी में नमी धारण क्षमता तथा नाइट्रोजन एवं जैविक अम्ल मृदा को उर्वरकता प्रदान करते हैं। जलवायु इन सभी तत्त्वों को नियन्त्रित करती है। इसी से जैविक तत्त्व सक्रिय होकर मूल पदार्थों में विनियोजित होते हैं।
5. कालावधि-मृदा-निर्माण प्रक्रिया उपर्युक्त कारकों के संयोग से लम्बी अवधि में सम्पन्न होती है। कालावधि जितनी लम्बी होती है मृदा उतनी ही परिपक्वता ग्रहण करती है और मृदा की पाश्विका (Profile) का विकास होता है। कम समय में निक्षेपित मूल पदार्थ में मृदा-निर्माण में कार्यरत कारक अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते: अत: मृदा तरुण या युवा होती है। इसमें संस्तर का अभाव होता है। अत: मृदा-निर्माण एवं विकास हेतु पर्याप्त कालावधि एवं अनिवार्य व आवश्यक कारक है।
प्रश्न 5. अपरदन या कटाव से आप क्या समझते हैं? अपरदन की क्रियाएँ एवं उनके रूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-अपरदन अपक्षय के विभिन्न कारकों द्वारा पृथ्वीतल की बहुत-सी अवसाद टूट-फूटकर एकत्रित हो जाती है तो यही मलबा या अवसाद जल, हिमानी, वायु आदि द्वारा अपरदित होकर एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाया जाता है। इस मलबे के स्थानान्तरण से अपरदन में और भी वृद्धि होती है; जैसे–नदियाँ अथवा हिमानियाँ अपने साथ लाये हुए बड़े-बड़े शिलाखण्डों के मार्ग में धरातल से रगड़ खाकर चलती हैं। जिससे धरातल तथा शिलाखण्डों का चूर्ण होता रहता है। इस प्रकार भौतिक कारकों के द्वारा भूतल की चट्टानों का विखण्डन होता है। इस विखण्डित पदार्थ को कुछ सीमा तक इन कारकों द्वारा अन्यत्र ले जाया जाता है और उसे किसी स्थान पर जमा कर दिया जाता है।
अपरदन की क्रियाएँ
अपरदन को प्रतिक्रियाओं के आधार पर निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया गया है
- अपक्षय द्वारा एकत्रित मलबे को गतिशील शक्तियों द्वारा नियन्त्रित करना।
- गतिशील शक्तियों का एकत्रित मलबे को बहाकर अथवा उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना।
- इस असंगठित एकत्रित मलबे का गतिशील शक्तियाँ कुछ दूरी तक परिवहन करती हैं तो अपघर्षण द्वारा और भी अधिक अपरदन होता है।
पुरिवहन की क्रिया निम्नलिखित तीन क्रमों में सम्पन्न होती है
- घोलकर-धरातल पर एकत्रित चट्टानों की अवसाद को अपरदन के साधन, जैसे जल अपने में घोलकर परिवहन करता है।
- तैराकर-बाढ़ का जल अथवा नदियाँ धरातल के बारीक कणों को तैराते हुए ले जाती हैं जो परिवहन में सम्मिलित हैं।
- उड़ाकर-वायु अपने तीव्र वेग के साथ धूल-कणों को मार्ग में धरातल पर घसीटते हुए उड़ा ले जाती है। इससे अपरदन तथा परिवहन दोनों ही स्वतन्त्र रूप में अपनी क्रिया करते हैं।
अपरदन के प्रकार
अपरदन के विभिन्न रूप अपरदन की भिन्न-भिन्न क्रियाओं में सम्पन्न होते हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है
1. अपघर्षण (Abrasion or Corrasion)-अपरदन क्रिया में अपघर्षण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। धरातल पर एकत्रित अवसाद को जब अपरदन के कारक-वायु, नदियाँ, हिमानी, समुद्री लहरें आदि-उड़ाकर या बहाकर ले जाते हैं तो मार्ग में बड़े-बड़े शिलाखण्ड धरातल को स्वयं खुरचते चलते हैं। इस प्रकार ये कंकड़-पत्थर धरातल पर अपरदन के यन्त्रों का कार्य करते हैं। इससे अपरदन क्रिया को बल मिलता है।
2. सन्निघर्षण (Attrition)-सन्निघर्षण की क्रिया प्रमुख रूप से नदी, हिमानी, वायु तथा समुद्री लहरों द्वारा होती है। इस क्रिया में धरातल के असंगठित पदार्थ जो अपरदन के कारकों द्वारा बहाकर या उड़ाकर ले जाए जाते हैं, वे आपस में भी टकराकर चलते हैं जिससे उनका आकार और भी छोटा होता जाता है। बाद में ये चूर्ण अर्थात् रेत में परिणत होकर मिट्टी में मिल जाते हैं।
3. घोलीकरण (Solution)-यह जल द्वारा की जाने वाली रासायनिक क्रिया है। वर्षा के जल में कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस मिली होने के कारण जल घोलन के रूप में कार्य करता है। यह जल चट्टानों में मिले हुए खनिज पदार्थों को घोलकर अपने साथ मिला लेता है तथा अन्यत्र बहा ले जाता
4. जलगति क्रिया (Hydraulic Action)-यह एक यान्त्रिक क्रिया है। इसमें बहता हुआ जल अपने वेग तथा दबाव के कारण मार्ग में स्थित चट्टानी-कणों को अपने साथ बहाकर ले जाता है।
5. अपवाहन (Deflation)-अपवाहन में वायु मुख्य कारक होती है जो भौतिक अपक्षय से विखण्डित पदार्थों को उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है। यह क्रिया शुष्क मरुस्थलीय भागों में अधिक होती है।
6. निक्षेपण (Deposition)-अपरदन के विभिन्न कारक परिवहन कार्य करने के बाद अपने साथ लाये गये मलबे को अपनी वाहन शक्ति के अनुसार जगह-जगह छोड़ते जाते हैं, जिसे निक्षेपण कहते हैं। निक्षेपण क्रिया से धरातल ऊँचा-नीचा हो जाता है। इस कार्य को बहता हुआ जल (नदी), भूमिगत जल, हिमानी, वायु तथा सागरीय लहरें सम्पन्न करती हैं। निक्षेपण की इस अवस्था में धरातल पर विभिन्न भू-आकृतियों का जन्म एवं विकास होता है।
प्रश्न 6. अपक्षय और अपरदन में क्या अन्तर है? अपरदन के मुख्य कारकों का विवरण दीजिए।
उत्तर-अपक्षय और अपरदन में अन्तर
अपक्षय और अपरदन में अन्तर स्पष्ट करने से पूर्व अपक्षय तथा अपरदन की क्रियाओं को समझना आवश्यक है। अपक्षय का अर्थ है–शैलों का अपने ही स्थान पर क्षीण होना या ढीला पड़ना। इस क्रिया को ऋतु-अपक्षय भी कहते हैं, क्योंकि इसमें मौसम के तत्त्व; जैसे-तापमान, आर्द्रता (वर्षा), पाला आदि चट्टानों को प्रभावित करके उनके कणों को ढीला कर देते हैं जिससे वे विखण्डित हो जाती हैं। चट्टानों के अपक्षय की यह क्रिया दो रूपों में होती है—(1) भौतिक अथवा यान्त्रिक रूप से तथा (2) रासायनिक रूप से। भौतिक अपक्षय द्वारा चट्टानें विघटित होती हैं। रासायनिक अपक्षय में शैलों में टूट-फूट नहीं होती वरन् उनके रासायनिक संगठन में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरणत: जल के प्रभाव से शैलों के कण घुल जाते हैं जिससे वे ढीली पड़ जाती हैं। इसे शैलों का अपघटन कहते हैं। शैलों के अपक्षय की क्रिया तीन प्रकार की होती है—(1) भौतिक यो यान्त्रिक, (2) रासायनिक तथा (3) जैविक।। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि भौतिक एवं रासायनिक कारकों के अतिरिक्त प्राणी (वनस्पति एवं जीव-जन्तु) भी शैलों को ढीला करने में सहयोग देते हैं। उदाहरणत: पेड़-पौधों की जड़े शैलों को ढीला करती हैं। अनेक प्रकार के बिलकारी जीव-जन्तु, कीड़े आदि भी शैलों को ढीला बनाने का कार्य करते हैं।
अपरदन का अर्थ है-चट्टानों को घिसना। इस कार्य में अपरदन के अनेक गतिशील साधन जो पदार्थ को बहाकर या उड़ाकर ले जाने की क्षमता रखते हैं, चट्टानों के अपरदन में सहयोग देते हैं। इन साधनों में बहता हुआ जल या नदी, हिमानी, पवन, सागरीय लहरें तथा भूमिगत जल अपरदन के प्रधान कारक हैं। ये सभी साधन गतिशील होने के कारण शैलों को तोड़ने-फोड़ने, अपरदित पदार्थ को बहाकर ले जाने तथा उसे अन्यत्र जमा करने में समर्थ होते हैं। अपरदन की इस क्रिया से भूपटल का बड़े पैमाने पर अनाच्छादन होता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपक्षय और अपरदन में निम्नलिखित मौलिक अन्तर होते हैं
1. अपक्षय एक स्थैतिक क्रिया है, जिसमें शैलों की अपने ही स्थान पर टूट-फूट होती है। इसके विपरीत, अपरदन एक गतिशील क्रिया है जिसमें टूटी शैलों को उनके स्थान से हटाकर अन्यत्र ले
जाकर निक्षेपित कर दिया जाता है।
2. अपक्षय में वायुमण्डल की शक्तियाँ; जैसे–तापमान, पाला, वर्षा आदि योग देते हैं। इसके विपरीत, अपरदन में धरातल के ऊपर सक्रिय (बाह्यजात) गतिशील साधन योग देते हैं।
3. अपक्षय एक पूर्ववर्ती क्रिया है जो बाद में अपरदन क्रिया को सरल बनाती है। किन्तु चट्टानों के अपक्षय के लिए अपरदन की कोई भूमिका नहीं होती। दूसरे शब्दों में, अपक्षय क्रिया अपरदन पर निर्भर नहीं है।
अपरदन के कारक
शैलों के अपरदन में गतिशील साधनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इन कारकों में बहता हुआ जल या नदी, हिमानी, पवन, सागरीय तरंगें तथा भूमिगत जल महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी कारकों में जल का कार्य सार्वत्रिक या सबसे व्यापक है। जल का कार्य आर्द्र क्षेत्रों में, पवन का कार्य शुष्क क्षेत्रों में, हिमानी का कार्य हिमाच्छादित क्षेत्रों में, भूमिगत जल का कार्य चूने की शैलों के क्षेत्रों में तथा लहरों का कार्य सागर तटों पर होता है। इन कारकों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है–
1. नदी या प्रवाही जल-अपरदन के कारकों में नदी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। नदियाँ प्रायः पर्वतों से निकलकर समुद्र में गिरती हैं। ये अपने पर्वतीय, मैदानी तथा डेल्टाई खण्ड में अपरदन तथा निक्षेप कार्य करती हैं जिससे अनेक प्रकार की आकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। नदियाँ अपनी घाटी का भी क्रमशः विकास करती हैं। पर्वतीय खण्ड में नदी की घाटी सँकरी तथा गहरी होती है जिसे गार्ज कहते हैं। इसकी आकृति अंग्रेजी के ‘V’ आकार की होती है। क्रमशः नदी अपनी घाटी को चौड़ा करती है। अन्त में डेल्टा बनाकर यह समुद्र में गिरती है।
2. हिमानी या हिमनद-हिमानियाँ या हिमनद हिमाच्छादित या उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं। हिमनद हिम की नदी होती है जो पर्वतीय ढालों पर धीरे-धीरे सरकती है। इसकी गति तो मन्द होती है किन्तु इसमें अपरदन की अपार क्षमता होती है। यह अनेक प्रकार की अपरदनात्मक तथा निक्षेपणात्मक आकृतियाँ बनाती है। हिमरेखा के नीचे हिमानी का अन्त हो जाता है।
3. वायु या पवन-वायु का कार्य प्रायः मरुस्थलों में होता है जहाँ यह वनस्पति तथा अन्य किसी भौतिक बाधा के अभाव में निर्बाध रूप से बहती है। वायु का कार्य अधिक ऊँचाई पर न होकर धरातल के निकट होता है। यह चट्टानों को खरोंचकर या अपघर्षण करके अनेक प्रकार की आकृतियों का निर्माण करती है। धरातल की रेत को उड़ाकर उसे अन्यत्र जमा कर देती है जिससे अनेक प्रकार की निक्षेपणात्मक आकृतियाँ बन जाती हैं।
4. सागरीय तरंगें-तरंगें या लहरें सागर तट पर सदैव प्रहार करती रहती हैं, जिससे सागर तट की चट्टानें क्रमशः ढीली पड़ती हैं तथा फिर टूट जाती हैं। यह शैल पदार्थ लहरों द्वारा सागर में बहा दिया जाता है। कुछ पदार्थ सागर तट पर या सागर से कुछ दूर जमा कर दिया जाता है। इस प्रकार लहरों के कार्य से अनेक प्रकार की अपरदनात्मक तथा निक्षेपात्मक आकृतियाँ बनती हैं।
5. भूमिगत जल-वर्षा का जल धरातले से रिसकर क्रमशः भूमि में चट्टानों के नीचे एकत्रित रहता है। यह जल हमें कुओं, ट्यूबवैल, पातालतोड़ कुओं तथा अन्य रूपों में उपलब्ध होता है। भूमिगत जल में नदी की भाँति प्रवाह नहीं होता है; अत: यह अपरदन का कार्य अधिकांशतः घुलन क्रिया द्वारा करता है। इस क्रिया से भूमि के नीचे अनेक प्रकार की आकृतियाँ बन जाती हैं। भूमिगत जल का कार्य चूना-पत्थर जैसी घुलनशील शैलों के क्षेत्र में अधिक व्यापक रूप से होता है। इस जल के साथ चूने के ढेर भी चट्टानों के फर्श तथा छतों पर एकत्रित हो जाते हैं जिनसे अनेक प्रकार की निक्षेपणात्मक आकृतियाँ बन जाती हैं।
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- 1. भूगोल एक विषय के रूप में
- 2. पृथ्वी की उत्पत्ति एवं विकास
- 3. पृथ्वी की आंतरिक संरचना
- 4. महासागरों और महाद्वीपों का वितरण
- 5. खनिज एवं शैल
- 7. भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास
- 8. वायुमंडल का संघटन तथा संरचना
- 9. सौर विकिरण ऊष्मा संतुलन एवं तापमान
- 10. वायुमंडलीय परिसंचरण तथा मौसम प्रणालियाँ
- 11. वायुमंडल में जल
- 12. विश्व की जलवायु एवं जलवायु परिवर्तन
- 13. महासागरीय जल
- 14. महासागरीय जल संचलन
- 15. पृथ्वी पर जीवन
- 16. जैव-विविधता एवं संरक्षण