NCERT Solutions Class 12 समाजशास्त्र Chapter-3 सामाजिक संस्थाएँ-निरंतरता एवं परिवर्तन
NCERT Solutions Class 12 समाजशास्त्र (भारतीय समाज) 12 वीं कक्षा से Chapter-3 सामाजिक संस्थाएँ-निरंतरता एवं परिवर्तन के उत्तर मिलेंगे। यह अध्याय आपको मूल बातें सीखने में मदद करेगा और आपको इस अध्याय से अपनी परीक्षा में कम से कम एक प्रश्न की उम्मीद करनी चाहिए।
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समाजशास्त्र Sociology के सभी Questions के जवाब बड़ी ही आसान भाषा में दिए हैं जिनको समझना और याद करना Students के लिए बहुत आसान रहेगा जिस से आप अपनी परीक्षा में अच्छे नंबर से पास हो सके।
CBSE एनसीईआरटी प्रश्न-उत्तर
Class 12 समाजशास्त्र Sociology
पाठ-3 सामाजिक संस्थाएँ-निरंतरता एवं परिवर्तन
1. जाति व्यवस्था में पृथक्करण (separation) और अधिक्रम (hierarchy) की क्या भूमिका है?
उत्तर- जाति व्यवस्था के सिद्धांतों को हम दो समुच्चयों के संयोग के रूप में समझ सकते है। प्रथम सिद्धांत भिन्नता और अलगाव पर आधारित है तथा द्वितीय सिद्धांत संपूर्णता और अधिक्रम पर आधारित है। सभी जाति एक-दूसरे से अलग होती है तथा इस पृथकता का कठोरता से पालन किया जाता है। इस तरह के प्रतिबंधों में विवाह, खान-पान तथा सामाजिक अंतर्सबंध से लेकर व्यवसाय तक शामिल हैं। जातियों का अस्तित्व संपूर्णता में ही है न कि भिन्न-भिन्न जातियों में। यह सामाजिक संपूर्णत समतावादी होने के बजाय अधिक्रमित है। प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान होने के साथ-साथ एक क्रम सीढ़ी भी होती है। सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।
जातियो की अधिक्रमित व्यवस्था 'शुद्धता' तथा 'अशुद्धता' के अंतर पर आधारित होती है। ऐसा माना जाता है की जो जातियाँ कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध है, उनका स्थान उच्च होता है और जिनको अशुद्ध माना जाता है, उनका स्थान निम्न दिया जाता है | इतिहासकारों के अनुसार युद्ध में पराजित होने वाले लोगों को निचली जाति में स्थान मिला | सभी जातियाँ एक-दूसरे से सिर्फ कर्मकांड की दृष्टि से ही असमान नहीं हैं, बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक तथा गैरप्रतिस्पर्धा समूह हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक जाति का इस व्यवस्था में अपना एक स्थान है तथा यह स्थान कोई दूसरी जाति नहीं ले सकती। जाति का संबंध व्यवसाय से भी होता है। व्यवस्था श्रम के विभाजन के अनुरूप कार्य करती है। इसमें परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं होती।पृथक्करण तथा अधिक्रम का विचार भारतीय समाज में भेदभाव, असमानता तथा अन्नायमूलक व्यवस्था की तरफ इंगित करता है।
2. वे कौन से नियम हैं, जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।
उत्तर- जाति व्यवस्था को बाध्य करने वाले नियम निम्नलिखित है:
1. जन्म आधारित जाति व्यवस्था = समाज द्वारा जाति का निर्धारण जन्म से होता है। एक बच्चा अपने माता-पिता की जाति में ही जन्म लेता है। कोई भी व्यक्ति न तो जाति को बदल सकता है, न छोड़ सकता है।
2. विवाह संबंधी कठोर नियम =जाति की सदस्यता के साथ विवाह संबंधी कठोर नियम शामिल होते हैं | जाति समूह 'सजातीय' होते हैं तथा विवाह समूह के सदस्यों में ही हो सकते हैं।
3. खान-पान के नियम =जाति के सदस्यों को खान-पान के नियमों का पालन करना होता है।
4. व्यवसाय संबंधित नियम= एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता है। यह व्यवसाय वंशानुगत होता है।
5. स्थिति का अधिक्रमित नियम-जाति में स्तर तथा स्थिति का अधिक्रम होता है। हर व्यक्ति की एक जाति होती है और हर जाति का सभी जातियों के अधिक्रम में एक निर्धारित स्थान होता है।
6. उप-विभाजन का नियम-जातियों का उप-विभाजन भी होता है। कभी-कभी उप-जातियों में भी उप-जातियाँ होती हैं। इसे खडात्मक संगठन कहा जाता हैं।
3. उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?
उत्तर- उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में निम्लिखित परिवर्तन आए :
1. आधुनिक समय में जाति का स्वरूप, प्राचीन भारतीय परंपरा की अपेक्षा उपनिवेशवाद की देन माना जा सकता है। अंग्रेज प्रशासकों ने देश पर कुशलतापूर्वक शासन कनरे के लिए जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने के प्रयास शुरू किए।
2. 1860 के दशक में जाति के संबंध में सूचना एकत्र करने के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण सरकारी प्रयत्न प्रारंभ किए गए। इनका आधार जनगणना व्यवस्था रखी गई ।
3. हरबर्ट रिजलेसन् ,1901 के निर्देशन में कराई गई जनगणना महत्वपूर्ण मानी गई, क्योंकि इस जनगणना के द्वारा जाति के सामाजिक अधिक्रम के बारे में जानकारी इकट्ठी करने का प्रयत्न किया गया अर्थात् श्रेणी क्रम में प्रत्येक जाति का सामाजिक दृष्टि के अनुसार कितना ऊँचा या नीचा स्थान प्राप्त है, इसका आकलन किया गया।
4. अधिकृत क्रम मई जाति की इस गणना के कारण भारत में जाति नामक संस्था की पहचान और ज्यादा सामने आई।
5. अनेक कानूनों तथा भू-राजस्व बंदोबस्ती ने उच्च जातियों के जाति आधारित अधिकारों को वैध मान्यता प्रदान करने का कार्य किया।
6. बड़े पैमाने पर सिंचाई की योजनाएँ प्रारंभ की गई तथा लोगों को बसाने का कार्य प्रारंभ किया गया। इन सभी प्रयासों का एक जातीय आयाम था।
उपनिवेशवाद काल में जाति संस्था में विभिन्न महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। संक्षेप रूप में, अंग्रेजों ने निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रमुख परिवर्तन किए-
1. समाज के विभिन्न वर्गों के मूल्यों, विश्वासों तथा रीति-रिवाजों को समझना।
2. भूमि की बंदोबस्ती।
3. जनगणना-भारत की जातियों तथा उप-जातियों की संख्या तथा आकार का पता लगाना।
4. किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत 'अदृश्य' हो गई?
उत्तर- जाति व्यवस्था में आए परिवर्तनो का सबसे ज़्यादा लाभ शहरी मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग को मिला। परिवर्तनो की वजह से इन वर्गों को भरपूर आर्थिक तथा शैक्षणिक संसाधन उपलब्ध हुए तथा तीव्र विकास का लाभ भी उन्होंने पूर्ण रूप से उठाया। विशेष तौर से ऊँची जातियों के अभिजात्य लोग आर्थिक सहायता प्राप्त सार्वजनिक शिक्षा, विशेष रूप से विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा तथा प्रबंधन के क्षेत्र में, व्यावसायिक शिक्षा से लाभान्वित होने में सफल हुए। साथ-ही-साथ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के प्रारंभिक दशकों में राजकीय क्षेत्र की नौकरियों में हुए विस्तार का भी लाभ उठाने में सफल रहे। समाज की अन्य जातियों की तुलना में उनकी उच्च शैक्षणिक स्थिति ने उनकी एक विशेषाधिकार वाली स्थिति प्रदान की।
अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़े वर्ग की जातियों के लिए यह परिवर्तन नुकसानदेह साबित हुआ।
इन परिवर्तनों से जातियों में और अधिक स्पष्ट हो गई। उन्हें विरासत में कोई शैक्षणिक तथा सामाजिक थाती नहीं मिली थी तथा उन्हें पूर्व स्थापित उच्च जातियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी।वे अपनी जातीय पहचान को नहीं छोड़ सकते हैं। वे कई प्रकार के भेदभाव के शिकार हैं।
5.भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर- भारत में जनजातियों का वर्गीकरण उनके स्थायी तथा अर्जित लक्षणों के आधार पर किया गया है।
1.जनजातीय समाज का वर्गीकरण
• अर्जित लक्षण
• स्थायी लक्षण
2.आकर के आधार पर वर्गीकरण
शारीरिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकरण-
1. आर्य
2. नीग्रिटो, द्रविड़
3. ऑरट्रेलॉइड
4. मंगोलॉइड
3.अर्जित लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण
1. आजीविका के साधन
० झूम खेती करने वाले
० बागवानी तथा औधोगिक कार्य करने वाले
० खेतिहर
० मछुआरे
2. संस्कृतिकरण के द्वारा जनजातियों को हिंदू समाज में आत्मसात् करने तथा शूद्रवर्ण वालों को स्वीकार करने की सीमा। इन लोगों को हिंदू समाज में उनके व्यवहार तथा वित्तीय स्थिति देखकर शामिल किया गया। आकार की दृष्टि से जनजातियों की संख्या सर्वाधिक 70 लाख है, जबकि सबसे छोटी जनजातियों की संख्या अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 100 व्यक्तियों से भी कम है। सबसे बड़ी जनजातियाँ गोंड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो और मुंडा हैं, इनमें से सभी की जनसंख्या कम-से-कम 10 लाख है।
4.भाषा के अधर पर वर्गीकरण
1. इंडो-आर्यन: (1% जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
2. तिब्बती से बर्मन: (80% जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
3. ऑस्ट्रिक: (पूर्ण रूप से जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
4. द्रविड़ियन: (3% जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
5.क्षेत्र के आधार पर वर्गीकरण
1. उत्तर-पूर्व- असम (30%), अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड
2. पारिस्थितिकीय अधिवास के आधार पर- राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश
3. राज्य की जनसंख्या के अधर पर- उत्तर-पुर (11%), शेष भारत
6. 'जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछुते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं', इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर- यह माना जाता है कि जनजातियाँ विश्व के शेष हिस्सों से कटी रही हैं और हमेशा से समाज का एक पिछड़ा हुआ हिस्सा रही हैं। इस कथन के पीछे निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं-
1. आदिवासी लोग हमेशा से उनकी आक्रामकता तथा स्थानीय लड़ाकू दलों से मिलीभगत के कारण मैदानी इलाकों के लोगों पर अपना प्रभुत्व कायम करते हैं।
2. मध्य भारत में विभिन्न गोंड राज्य रहे हैं; जैसे-गढ़ मांडला या चाँद।
3. इसके अलावा कुछ विशेष प्रकार के व्यापार पर भी उनका अधिकार था; जैसे- नमक ,वन्य उत्पाद और हाथियों का विक्रय।
4. मध्यवर्ती तथा पश्चिमी भारत के तथाकथित राजपूत राज्यों में से अनेक रजवाड़े वास्तव में स्वयं आदिवासी समुदायों में स्तरीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से ही उत्पन्न हुए।
आदिम समुदाय के रूप में जनजातियों को प्रमाणित करने वाले तथ्य :
1. अपना राज्य अथवा राजनीतिक पद्धति नहीं हैं।
2. कोई लिखित धार्मिक कानून भी नहीं हैं।
3. न तो वे हिंदू हैं न ही खेतिहर।
4. प्रारंभ से ही शिकार, खाद्य संग्रहण, मछली पकड़ने, कृषि इत्यादि गतिविधियों में संलिपत्तता।
5. निवास घने जंगलों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में होता है।
7. आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है, उसके पीछे क्या कारण है?
उत्तर- जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है, उसके पीछे निम्न कारण है :
1. जनजातीय समुदायों का मुख्यधारा की प्रक्रिया में बलात् समावेश का प्रभाव जनजातीय संस्कृति तथा समाज पर ही नहीं,अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है।
2. अंत:क्रिया की प्रक्रिया का जनजातियों के अनुकूल नहीं होने के कारण आज विभिन्न जनजातियाँ गैरजनजातीय जगत् की प्रचंड शक्तियों के प्रतिरोध की विचारधारा पर आधारित हैं।
3. धीरे-धीरे उभरते हुए शिक्षित मध्यम वर्ग ने आरक्षण की नीतियों के साथ मिलकर एक नगरीकृत व्यावसायिक वर्ग का निर्माण किया है, क्योंकि जनजातीय समाज में विभेदीकरण तेजी से बढ़ रहा है, विकसित तथा अन्य के बीच विभाजन भी बढ़ रहा है।
जनजातीय पहचान के नवीनतम आधार विकसित हो रहे हैं।
4. झारखंड व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के गठन की वजह से जो सकारात्मक असर पड़ा, वह सतत्स मस्याओं के कारण नष्ट हो गया। पूर्वोतर राज्यों के बहुत से नागरिक एक विशेष कानून के अंतर्गत रह रहे हैं, जिसमें उनके नागरिक अधिकारों को सिमित कर दिया गया है।
5. आज जनजातीय पहचान का निर्माण अंत:क्रिया की प्रक्रियाओं द्वारा हो रहा है।
6. इन मुद्दों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है ,पहला भूमि तथा जंगल जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण से संबंधित है,
दूसरा मुद्दा जातीय संस्कृति की पहचान को लेकर है।
8. परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?
उत्तर- परिवार एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है।आधुनिक समय में परिवार की संरचना में काफी परिवर्तन हुए हैं। उदाहरणत: सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे लोग समय के कारण बच्चों की देखरेख नहीं कर पाते हैं, तो दादा-दादी, नाना-नानी को बच्चों की देखभाल करते है।परिवार का मुखिया स्त्री अथवा पुरुष हो सकते हैं। परिवार के गठन की यह संरचना आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक जैसे बहुत सारे कारकों पर निर्भर करती हैं।
आज जो हम परिवार की संरचना में परिवर्तन देखते हैं, उसका कारण हैं :
1. प्रेम विवाह
2. समलैंगिक विवाह
परिवार के प्रकार :
1.एकल परिवार- इसमें माता-पिता तथा उनके बच्चे शामिल होते हैं।
2.विस्तारित परिवार- इसमें एक से अधिक दंपति होते हैं तथा अकसर दो से अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं।
परिवार के विविध रूप:
1. मातृवंशीय-पितृवंशीय (निवास के आधार पर)
2. मातृसत्तात्मक तथा पितृसत्तात्मक (अधिकार के आधार पर)
3. मातृवंशीय तथा पितृवंशीय (उत्तराधिकार के नियमों के आधार पर)
9. सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना मे किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर- सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना मे इस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं:
• परिवार की भीतरी संरचना का संबंध आमतौर पर समाज की अन्य संरचनाओं से होता है; जैसे-आर्थिक, राजनीतिक,सांस्कृतिक इत्यादि। परिवार के सदस्यों के व्यवहारों में कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन समाज के स्वभाव में परिवर्तन लाता है। उदाहरणत: ,सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे युवा माता-पिता अपनी कार्य-अवधि के दौरान यदि अपने बच्चों की देखभाल न कर पाएँ तो घर में दादा-दादी, नाना-नानियों की संख्या उनके बच्चों की देखबाल करने हेतु बढ़ जाएगी |
• कभी-कभी परिवार में परिवर्तन तथा तत्संबंधी समाज में परिवर्तन अप्रत्याशित रूप से भी अपघटित होता है; जैसे- युद्ध अथवा दंगों के कारण लोग सुरक्षा कारणों से काम की तलाश में प्रवासन करते हैं।
परिवार (निजी स्तर) का संबंध राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिणिक (सार्वजनिक स्तर) से होता हैं।
• कभी-कभी इस प्रकार के परिवर्तन किसी विशेष प्रयोजन से भी होते हैं- जैसे; स्वतंत्रता तथा विचारों के खुलेपन के कारण लोग अपने रोजगार, जीवन-साथी तथा जीवन-शैली का चुनाव करते हैं। इस तरह के परिवर्तन भारतीय समाज में बारंबार होते रहे हैं।
• परिवार का गठन तथा इसकी संरचना में परिवर्तन होते हैं।
10. मातृवंश (Matriliny) मातृतंत्र (Matriarchy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर- मातृवंश तथा मातृतंत्र में अंतर :
• मेघालय के समाज की खासी, जैतिया तथा गारो जनजातियों तथा केरल के नयनार जाति के परिवार में संपत्ति का
उत्तराधिकार माँ से बेटी को प्राप्त होता है। भाई अपनी बहन की संपत्ति की देखभाल करता है तथा बाद में बहन के बेटे को प्रदान कर देता है।
•यह भूमिका द्वंद्ध महिलाओं में समान रूप से होता है। उनके पास केवल प्रतीकात्मक अधिकार होता है। असली सत्ता पुरुषों के पास ही होती है। मातृवंश के बावजूद शक्ति का केंद्र पुरुष ही होते हैं |
• इस तरह के समाजों में महिलाएं अपने अधिकारों का प्रयोग करती हैं तथा एक प्रभावशाली भूमिका का निर्वहन करती हैं।
• व्यावहारिक रूप से यह एक सैद्धांतिक अवधारणा ही बनकर रह जाति है, क्योंकि स्त्रियों को कभी भी वास्तविक
प्रभुत्वकारी शक्ति प्राप्त नहीं होती।
•यह मातृवंशीय परिवारों में भी विद्यमान नहीं हैं।
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